*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-12
लखु लछिमन ऋतु जाड़ा आई।
नाम सरद सभ जन सुखदाई।।
कास-स्वेत पुष्प मन मोहै।
बृद्ध होय जनु बरखा सोहै।।
घटहि नीर अब नदी-तलावा।
जनु मिलि ग्यान लोभ नहिं भावा।।
निर्मल- स्वच्छ नीर सर-सरिता।
जस हिय सुजन मोह-मद रहिता।।
पाइ सरद ऋतु खंजन दिखहीं।
जस सद्कर्म-सुअवसर भवहीं।।
जस धन घटत बिकल अग्यानी।
मछरी बिकल घटै जब पानी।।
कीचड़-धूरि हीन पथ ऋतु कै।
जस सोहै सुनीति कोउ नृप कै।।
घन बिहीन निर्मल नभ सोहै।
जस अनिच्छ मन भगतिहि मोहै।।
सरद-मेघ जब कहुँ-कहुँ बरसैं।
लग प्रसाद हरि बिरलहिं परसैं।।
सिंधु-सरन जस मीन सुखारी।
पाइ भगति प्रभु नहीं भिखारी।।
कमल बिनू सर लगै अनाथा।
जनु धनपति प्रभु टेक न माथा।।
उड़त पखेरू-कलरव भावै।
चंपक-गुंजन मन ललचावै।।
पपिहा पिव-पिव रटन लगावै।
जस सिव-द्रोही सुख नहिं पावै।।
आतप सरद-चंद्र जनु हरही।
जनु असंत प्रभु-दरस न पवही।।
ताकहि अपलक चंद्र चकोरा।
हरि-भगतन्ह नहिं दरस निठोरा।।
पाइ सरद भे मच्छर-नासा।
अवसि नास बिनु हरि-बिस्वासा।।
पाइ सरद ऋतु कै सितलाई।
भवहिं बिनास कीट-समुदाई।।
दोहा-भूमि होय मच्छर रहित,पाइ सरद ऋतु साथ।
जस भागहिं संसय-भ्रमहिं,धरत सीष गुरु-हाथ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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