डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-12


लखु लछिमन ऋतु जाड़ा आई।


नाम सरद सभ जन सुखदाई।।


    कास-स्वेत पुष्प मन मोहै।


     बृद्ध होय जनु बरखा सोहै।।


घटहि नीर अब नदी-तलावा।


जनु मिलि ग्यान लोभ नहिं भावा।।


    निर्मल- स्वच्छ नीर सर-सरिता।


    जस हिय सुजन मोह-मद रहिता।।


पाइ सरद ऋतु खंजन दिखहीं।


जस सद्कर्म-सुअवसर भवहीं।।


     जस धन घटत बिकल अग्यानी।


     मछरी बिकल घटै जब पानी।।


कीचड़-धूरि हीन पथ ऋतु कै।


जस सोहै सुनीति कोउ नृप कै।।


     घन बिहीन निर्मल नभ सोहै।


     जस अनिच्छ मन भगतिहि मोहै।।


सरद-मेघ जब कहुँ-कहुँ बरसैं।


लग प्रसाद हरि बिरलहिं परसैं।।


     सिंधु-सरन जस मीन सुखारी।


     पाइ भगति प्रभु नहीं भिखारी।।


कमल बिनू सर लगै अनाथा।


जनु धनपति प्रभु टेक न माथा।।


     उड़त पखेरू-कलरव भावै।


      चंपक-गुंजन मन ललचावै।।


पपिहा पिव-पिव रटन लगावै।


जस सिव-द्रोही सुख नहिं पावै।।


     आतप सरद-चंद्र जनु हरही।


      जनु असंत प्रभु-दरस न पवही।।


ताकहि अपलक चंद्र चकोरा।


हरि-भगतन्ह नहिं दरस निठोरा।।


     पाइ सरद भे मच्छर-नासा।


     अवसि नास बिनु हरि-बिस्वासा।।


पाइ सरद ऋतु कै सितलाई।


भवहिं बिनास कीट-समुदाई।।


दोहा-भूमि होय मच्छर रहित,पाइ सरद ऋतु साथ।


          जस भागहिं संसय-भ्रमहिं,धरत सीष गुरु-हाथ।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


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