*दुर्दिन*
काँधे पर बिटिया धरे,गाँव-शहर से दूर।
लाज बचाने जा रहा,वह होकर मजबूर।।
भूखा-प्यासा,तन-थकित,उखड़े-उखड़े पाँव।
इधर-उधर वह फिर रहा,मिले न समुचित ठाँव।।
जहाँ देखिए गिद्ध हैं,माँसखोर घनघोर।
दृष्टि गड़ाए वे रहें, निशि-वासर चहुँ-ओर।।
ज्ञान-शून्य-हवसी दनुज,दें न उम्र का ध्यान।
नोचें दो-दो-तीन मिल, विवश बदन नादान।।
कामुक-भुक्खड़ नर अधम,होते बड़े कठोर।
तन सँग कर खिलवाड़ ये,हरें प्राण ज्यों चोर।।
मात-पिता,भाई-बहन,और सकल परिवार।
विवश और लाचार हो,देखें अत्याचार ।।
कभी-कभी सरकार भी,हो जाती लाचार।
विधिक व्यवस्था अति लचर,छीने जन-अधिकार।।
अबल और असहाय का, होता आटा गील।
रोटी यदि बन जाय भी,झट से छीने चील।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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