डॉ. हरि नाथ मिश्र

*दुर्दिन*


काँधे पर बिटिया धरे,गाँव-शहर से दूर।


लाज बचाने जा रहा,वह होकर मजबूर।।


 


भूखा-प्यासा,तन-थकित,उखड़े-उखड़े पाँव।


इधर-उधर वह फिर रहा,मिले न समुचित ठाँव।।


 


जहाँ देखिए गिद्ध हैं,माँसखोर घनघोर।


दृष्टि गड़ाए वे रहें, निशि-वासर चहुँ-ओर।।


 


ज्ञान-शून्य-हवसी दनुज,दें न उम्र का ध्यान।


नोचें दो-दो-तीन मिल, विवश बदन नादान।।


 


कामुक-भुक्खड़ नर अधम,होते बड़े कठोर।


तन सँग कर खिलवाड़ ये,हरें प्राण ज्यों चोर।।


 


मात-पिता,भाई-बहन,और सकल परिवार।


विवश और लाचार हो,देखें अत्याचार ।।


 


कभी-कभी सरकार भी,हो जाती लाचार।


विधिक व्यवस्था अति लचर,छीने जन-अधिकार।।


 


अबल और असहाय का, होता आटा गील।


रोटी यदि बन जाय भी,झट से छीने चील।।


                   ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...