डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*आदमी*


*(ग़ज़ल)*


 


भीड़ में अब खो गया है आदमी ।


खोजता पहचान अपनी आदमी।।


 


आज उसकी सूक्तियाँ बेजान हैं।


सूक्तियों पर रो रहा है आदमी।।


 


गर्मजोशी है गलत अफवाह में।


सत्य को स्वीकारता कब आदमी।।


 


बिक रही बाजार में हैं मूलियाँ।


मूर्तियों को तोड़ता है आदमी।।


 


सहजता का भाव मंदा है बहुत।


नीति गंदी खेलता है आदमी।।


 


आदमी को आदमी ही पीटता।


हर तरफ से धुंध दिखता आदमी।।


 


दिख रही संवेदना क्षतिग्रस्त है।


क्रूरता के शिखर पर है आदमी।।


 


आदमी की सोच कैसी हो गयी।


आदमी की मार सहता आदमी।।


 


सत्य रोता झूठ हँसता ये तमाशा।


हो गया है झूठ सच्चा आदमी।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


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