बारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1
सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।
बन महँ लेवन हेतु कलेवा।।
नटवर लाल नंद के छोरा।
लइ सभ गोपहिं होतै भोरा।।
सिंगि बजावत बछरू झुंडहिं।
तजि ब्रज बनहीं चले तुरंतहिं।।
सिंगी-बँसुरी-बेंतइ लइता।
बछरू सहस छींक के सहिता।।
गोप-झुंड मग चलहिं उलासा।
उछरत-कूदत हियहिं हुलासा।।
कोमल पुष्प-गुच्छ सजि-सवँरे।
कनक-अभूषन पहिरे-पहिरे।।
मोर-पंख अरु गेरुहिं सजि-धजि।
घुँघची-मनी पहिनि सभ छजि-छजि।।
चलें मनहिं-मन सभ इतराई।
सँग बलदाऊ किसुन-कन्हाई।।
छींका-बेंत-बाँसुरी लइ के।
इक-दूजे कै फेंकि-लूटि कै।।
छुपत-लुकत अरु भागत-धावत।
इक-दूजे कहँ छूवत-गावत ।।
चलै बजाइ केहू तहँ बंसुरी।
कोइल-भ्रमर करत स्वर-लहरी।।
लखि नभ उड़त खगइ परिछाईं।
वइसे मगहिं कछुक जन धाईं।।
करहिं नकल कछु हंसहिं-चाली।
चलहिं कछुक मन मुदित निहाली।
बगुल निकट बैठी कोउ-कोऊ।
आँखिनि मूनि नकल करि सोऊ।।
लखत मयूरहिं बन महँ नाचत।
नाचै कोऊ तहँ जा गावत ।।
दोहा-करहिं कपी जस तरुन्ह चढ़ि, करैं वइसहीं गोप।
मुहँ बनाइ उछरहिं-कुदहिं, प्रमुदित मन बिनु कोप।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें