डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


देहु प्रसाद नाथ कछु हमहन।


करत रहहिं हम तव गुन बरनन।।


     श्रवन सुनहिं तव कथा सुहानी।


     रसमय-मधुर रहहिं सभ बानी।।


करतै रहहिं हाथ तव सेवा।


पद-सरोज तव चित-मन लेवा।।


    सकल जगत प्रभु तोर निवासा।


     नवत रहहिं हम अस लइ आसा।।


तव सरीर प्रत्यछ जग संता।


तिनहिं क दरसन सुख भगवंता।।


     नैन दरस बस करैं तिनहिं कहँ।


      अस प्रसाद प्रभु देउ हमहिं कहँ।।


ऊखल बन्हे कृष्न तब कहऊ।


मिलहिं प्रसाद तुमहिं जे चहऊ।।


    रह मदांध तुमहिं दोउ भाई।


    रहा परत अस मोंहि लखाई।।


नारद मुनी कृपा जनु कीन्हा।


साप तुमहिं जनु जे अस दीन्हा।।


     समदरसी मुनि मोंहि समर्पित।


     मुनिहिं प्रसाद कीन्ह मैं अर्पित।।


बंधन-मुक्त भयो दोउ भाई।


जाहु भगति मम लइ गृह धाई।।


दोहा-सुनि के अस प्रभु कै बचन,नमन किन्ह दोउ भ्रात।


         कइ पैकरमा किसुन कै, दिसि उत्तर चलि जात।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


 


 


चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-10


 


कहे पुनः प्रभु सुनहु कपीसा।


जाउँ न गृह दस चार बरीसा।।


    मोर काजु भूलेउ नहिं कबहूँ।


   सीता-खोज करत सभ रहहूँ।।


अब हम रहब निकट गिरि कतहूँ।


अनुजहिं सहित ठौर मिलि जहहूँ।।


   बरखा ऋतु अति सुखद-सुहानी।


   मोहहि धरा चुनर धरि धानी।।


गुहा रुचिर सभ देव बनाए।


परबर्षन गिरि पर मन भाए।।


    कछुक काल तहँ प्रभु अब रहिहैं।


    प्रभु-दर्सन-सुख सभ जन पइहैं।।


नर-तन धरि पसु-पंछी-भँवरे।


सेवहिं प्रभुहिं ध्यान धरि हियरे।।


     मंगल-रूपा धरा अनूपा।


     प्रभु-निवास जहँ रहहि सरूपा।।


फटिकइ-सिला बैठि दोउ भाई।


कहहिं-सुनहिं नृप-नीति सुहाई।।


    भगति-बिरति अरु ग्यान-बिबेका।


     कहहिं-सुनहिं बहु-भाँति अनेका।।


बरषा-काल जलद नभ छाए।


उमड़ि-घुमड़ि जल बहु बरसाए।।


     नाचहिं लखि-लखि जलद मयूरा।


     होहि बिकल मन लखि तेहिं पूरा।।


दामिनि-दमक-गरज-घन नभ मा।


बिरह-अगिनि लागै जनु तन मा।।


      बादर सिर नवाइ जल बरसहिं।


      बिद्यावान नम्र जस हरषहिं।।


गिरत बूँद गिरि-सिर अस फोरैं।


दुष्ट-बचन जस संतन्ह तोरैं।।


    लघु सरिता निज तट अस काटै।


     जस खल पाइ प्रचुर धन ठाटै।।


धरनि-धूरि मिलि जल ढबरैला।


जस माया मिलि मन गोबरैला।।


     सरिता-जल मिलि सागर-जल मा।


     होवहि थीर चपल मन प्रभु मा।।


चहुँ-दिसि महँ सुनि मेंढक-बानी।


लागहिं जनु बटु बेद बखानी।।


दोहा-हृदय होय हरषित लखन,लखि-लखि तरु-सिख-पातु।


        हरषै जस लखि नवल सिसु, मन-हिय कोऊ मातु ।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                        9919446372


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