तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-25
इच्छु-दंभ,लोभी-बल जग मा।
बचन कठोर कुपित जन मुख मा।।
कामी कै बल नारी अहहीं।
मुनि-ऋषि श्रेष्ठ बाति ई कहहीं।।
पर प्रभु राम रहसि ई जानहिं।
तेहिं तें धीर-बिराग जगावहिं।।
जब होवै प्रभु-कृपा केहू पै।
कामइ-क्रोध न लोभ तेहू पै।।
करै प्रभाव दंभ नहिं माया।
माया-जाल-मुक्त प्रभु-दाया।।
सकल जगत बस सपन भरम कै।
करु प्रभु-भजन न भेव भरम कै।।
दोहा-अस जग देइ सनेस प्रभु,पुनः गए सर-तीर।
पम्पासर जहँ सोहही,पुरइन-पुष्प-सुनीर।।
पम्पासर कै निरमल नीरा।
संत-हृदय जस बिनु मल थीरा।।
चार घाट बड़ बँधे सुचारू।
पिबहिं नीर पसु लघु सँग भारू।।
पम्पासर जनु घर उदार कै।
भिच्छुक खग-मृग बन-बिहार कै।।
जब चाहहिं पीवहिं जल-बारी।
चुकता करि बिनु कोऊ उधारी।।
समरस झष जल रहहिं अगाधू।
जस जग रहहिं एक रस साधू।।
बिबिध रूप-रँग पंकज बिगसैं।
भन-भन मधुर भृंग तहँ बेलसैं।।
जलकुक्कुट अरु हंस-हंसिनी।
प्रभु लखि किलकैं सिंह-सिंहिंनी।।
बगुला-चक्रवाक सर-तीरा।
खग-संकुल निरखहिं प्रभु धीरा।।
सुनि-सुनि खग-संकुल मृदु बैना।
थकित पथिक तहँ पावहिं चैना।।
निज-निज कुटिन्ह मुनी तहँ रहहीं।
पम्पासर जहँ तरु बहु भवहीं ।।
कटहल-आम-पलास-तमाला।
चम्पा-मौलिहिं बिबिध बिसाला।।
सोहै कानन बिबिध स्वरूपा।
बरनि न जा लखि बिटप अनूपा।।
लइ सुगंध कसुमित तरु-पाती।
झर-झर बायु सुगंधित आती।।
कोकिल-पपिहा-स्वर बड़ सोहै।
कुहू-कुहू,पिव-पिव मन मोहै।।
फल भरि डारन तरु अस नवहीं।
जस धन पाइ सुजन जग रहहीं।।
सोरठा-लखि अस रुचिर तड़ाग,राम-लखन मज्जन करहिं।
लखि-लखि कसुमित बाग,बैठहिं राम लखन सहित।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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