डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-25


 


इच्छु-दंभ,लोभी-बल जग मा।


बचन कठोर कुपित जन मुख मा।।


    कामी कै बल नारी अहहीं।


    मुनि-ऋषि श्रेष्ठ बाति ई कहहीं।।


पर प्रभु राम रहसि ई जानहिं।


तेहिं तें धीर-बिराग जगावहिं।।


     जब होवै प्रभु-कृपा केहू पै।


     कामइ-क्रोध न लोभ तेहू पै।।


करै प्रभाव दंभ नहिं माया।


माया-जाल-मुक्त प्रभु-दाया।।


  सकल जगत बस सपन भरम कै।


  करु प्रभु-भजन न भेव भरम कै।।


दोहा-अस जग देइ सनेस प्रभु,पुनः गए सर-तीर।


        पम्पासर जहँ सोहही,पुरइन-पुष्प-सुनीर।।


पम्पासर कै निरमल नीरा।


संत-हृदय जस बिनु मल थीरा।।


    चार घाट बड़ बँधे सुचारू।


     पिबहिं नीर पसु लघु सँग भारू।।


पम्पासर जनु घर उदार कै।


भिच्छुक खग-मृग बन-बिहार कै।।


     जब चाहहिं पीवहिं जल-बारी।


     चुकता करि बिनु कोऊ उधारी।।


समरस झष जल रहहिं अगाधू।


जस जग रहहिं एक रस साधू।।


    बिबिध रूप-रँग पंकज बिगसैं।


    भन-भन मधुर भृंग तहँ बेलसैं।।


जलकुक्कुट अरु हंस-हंसिनी।


प्रभु लखि किलकैं सिंह-सिंहिंनी।।


    बगुला-चक्रवाक सर-तीरा।


    खग-संकुल निरखहिं प्रभु धीरा।।


सुनि-सुनि खग-संकुल मृदु बैना।


थकित पथिक तहँ पावहिं चैना।।


    निज-निज कुटिन्ह मुनी तहँ रहहीं।


    पम्पासर जहँ तरु बहु भवहीं ।।


कटहल-आम-पलास-तमाला।


चम्पा-मौलिहिं बिबिध बिसाला।।


    सोहै कानन बिबिध स्वरूपा।


    बरनि न जा लखि बिटप अनूपा।।


लइ सुगंध कसुमित तरु-पाती।


झर-झर बायु सुगंधित आती।।


    कोकिल-पपिहा-स्वर बड़ सोहै।


    कुहू-कुहू,पिव-पिव मन मोहै।।


फल भरि डारन तरु अस नवहीं।


जस धन पाइ सुजन जग रहहीं।।


सोरठा-लखि अस रुचिर तड़ाग,राम-लखन मज्जन करहिं।


            लखि-लखि कसुमित बाग,बैठहिं राम लखन सहित।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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