*गीत*(चाँदनी रात)
अगर चाँदनी रात ये आई न होती,
कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।
नहीं प्यार की कभी ये बगिया सँवरती-
ये कभी प्यार गहरा समंदर न होता।।
चाँदनी रात-पूनम-मिलन को समंदर,
चला जाता छूने को नभ में उमड़कर।
सितारे भी टिम-टिम मधुर ध्वनि से उसका,
करते हैं स्वागत मुस्कुराकर-सँवरकर।
अगर रातें पूनम न अंबर पे होतीं-
भयंकर समंदर कभी सुंदर न होता।।
कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।
चाँदनी रात का ये प्यारा सा आलम,
विरह-तप्त प्रेमी को देता है राहत।
प्रेम के भाव उसके नहा चाँदनी में,
करते पूरी उसकी अधूरी सी चाहत।
ये सारी रातें जो पूनम की होतीं-
कभी हाथों प्रेमी के खंजर न होता।
कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।
चाँदनी रात का चाँद प्यारा है लगता,
चंदा मामा की लोरी लुभाए सदा।
नन्हें-मुन्ने गगन में निरख चाँद को ही,
कहें मामा की हमको है भाए अदा।
अगर चाँद में ऐसा सुधा-गुण न होता-
तो कभी नाम इसका सुधाकर न होता।।
कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।
चाँदनी रात धरा की सौगात प्यारी,
है छिपा इसमें ईश्वर का वरदान है।
ये धरा भी नहाई लगे चाँदनी में,
जैसे प्यारी प्रकृति का ये ईमान है।
चाँद भी कभी प्यारा-सुहाना न होता-
अगर व्योम में तपता दिवाकर न होता।।।
कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।
चाँदनी रात की ही नरम रौशनी में,
ये नहाकर निकलता जहाँ में सवेरा।
नई चेतना सँग नई शक्ति का ही तब,
होता है जन-जन में नवल नित बसेरा।
अगर चाँदनी रातें गगन में न होती-
तो ये रति का स्वामी धनुर्धर न होता।।
कभी प्यार का सलोना मंज़र न होता।।
©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें