डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


देखु सभें मैं भवा सपंखा।


राम-कृपा मोंहि मिली असंखा।।


     पातक सुमिरि नाम प्रभु रामहिं।


     भव-सागर असीम तिर जावहिं।।


तुम्ह सभ प्रभु कै भगत अनूपा।


हिय महँ राखि राम कै रूपा।।


     सुमिरत खोजहु कछू उपाया।


     अवसि सुझा दइहैं रघुराया।।


अस गीधहि कह उड़ा पराई।


कहत बचन अस आस जगाई।।


      जामवंत कह होइ उदासा।


      मैं अब बृद्ध, तरुन-बल-नासा।।


एक बेरि मैं निज तरुनाई।


सुनहु तात निज ध्यान लगाई।।


     दूइ पहर महँ सात पकरमा।


     किए रहे हम राम सुकरमा।।


निज काया बढ़ाइ बामन कै।


बाँधि रहे जब बलि दुसमन कै।।


    अंगद कहा पार मैं जाऊँ।


     पर, संसय की लौटि न पाऊँ।।


जामवंत तब कह समुझाई।


तुम्ह सेनापति तुम्ह कस जाई।।


    सुनहु पवन-सुत तजि संतापा।


     जानउ भुज-बल अपुन प्रतापा।।


तुम्ह सागर बल-बुद्धि-बिबेका।


समरथ करनि करम बहु नेका।।


    मारुति-सुत तुम्ह मारुति नाईं।


    धाइ सकत तुम्ह यहि तरुनाईं।।


तोर जनम प्रभु-कारजु ताईं।


भयउ जगत,तुम्ह ई तन पाईं।।


    अस सुनि हनुमत गिरि आकारा।


    तुरत भए अति बृह्दाकारा ।।


कंचन बदन सुमेरु समाना।


तेजवान-महान हनुमाना।।


    कहे तुरत मैं नाघहुँ सागर।


    करउँ राम-रिपु-नीति उजागर।।


तुरत त्रिकुटि उखारि मैं लाऊँ।


रावन-कुल बिनास करि आऊँ।।


    सिंहनाद करि कह हनुमाना।


    करब काजु तुरतै भगवाना।।


जामवंत अब मोहिं सिखावउ।


कस हम करीं काजु बतलावउ।


     लंक जाइ खोजि सिय माता।


    आवहुँ तुरत लेइ सुधि ताता।।


सेष काजु प्रभु करिहैं खुदहीं।


लीला करिहैं मरकट सँगहीं।।


दोहा-राम बैद्य जग-रोग कै,जे मन अस बिस्वास।


        राम देहिं औषधि तिनहिं,करैं रोग सभ नास।।


        राम करैं मन अति बिमल,धो के दुरगुन-मैल।


        हरन करैं भव-पीर सभ,जौं इहँ दुक्ख भैल।।


प्रभु कै नाम सुमिरि हनुमंता।


कारजु करन सकल भगवंता।।


     आगे बढ़े सीय के खोजन।


     नाँघे सिंधु उग्र सत जोजन।।


            डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


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