चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-7
तब रघुबीर लेइ धनु-बाना।
सँग सुग्रीवहिं किए पयाना।।
प्रभु-बल लइ सुग्रीव पुकारा।
बाली-बाली कह ललकारा।।
सुनि पुकार निकसा तब बाली।
क्रोधित धावै हाली-हाली ।।
अस लखि बाली-पत्नी तारा।
गहि पति-चरन कही बहु बारा।।
सुनहु नाथ ई सभ दोउ भाई।
सकहीं मारि काल त्रिनु नाई।।
दसरथ-सुत ई दोऊ बीरा।।
राम-लखन-बल-पौरुष-धीरा।।
हो नहिं बिकल सुनउ तुम्ह तारा।
प्रभु समदरसी कह संसारा।।
जदि रघुबीर हरहिं मम प्राना।
परमधाम मैं करउँ पयाना।।
निकट सुग्रीवहिं गरजत धावा।
मुठिका मारि ताहि धमकावा।।
होइ बिकल सुग्रीवहि भागा।
बालि क प्रहार बज्र सम लागा।।
सुनहु नाथ मम बालि न भाई।
मारेसि मों जनु कीट की नाई।।
लरत समय तव रूप समाना।
भ्रमबस बालिहिं मारि न पाना।।
अस कह राम तासु तन परसा।
भयो तासु तन बज्रहि सहसा।।
पुनि भेजा तेहिं करन लराई।
पार केहूँ बिधि कपि नहिं पाई।।
देखि बालि मारत सुग्रीवा।
तब प्रभु राम ओट तरु लेवा।।
तेहिं तें किया बान संधाना।
हता बालि जनु निकसा प्राना।।
दोहा-बाली हो घायल गिरा,सहसा धरा धड़ाम।
निरखत प्रभु-पंकज चरन, लोचन-छबि अभिराम।।
कहा प्रभू आयो जगत,करन धरम कै काम।
हमहिं क काहें तुम्ह बधेयु, छाँड़ि अनुज यहि धाम।।
तव पियार सुग्रीव प्रति,सुनहु प्रभू श्रीराम।
जानि परत मों तें अधिक,लखि मम अघ कै काम।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र।
9919446372
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दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
जे नहिं कंटक-पीरा जानै।
ऊ नहिं पीरा अपरै मानै।।
नहीं हेकड़ी,नहीं घमंडा।
रहै दरिद्री खंडहिं-खंडा।।
नहिं रह मन घमंड मन माहीं।
जे जन जगत बिपन्नय आहीं।।
रहै कष्ट जग जे कछु उवही।
ओकर उवहि तपस्या रहही।।
करि कै जतन मिलै तेहिं भोजन।
दूबर रह सरीर जनु रोगन ।।
इन्द्रिय सिथिल, बिषय नहिं भोगा।
बनै नहीं हिंसा संजोगा ।।
कबहुँ न मनबढ़ होंय बिपन्ना।
होंहिं घमंडी जन संपन्ना ।।
साधु पुरुष समदरसी भवहीं।
जासु बिपन्न समागम पवहीं।।
नहिं तृष्ना,न लालसा कोऊ।
जे जन अति बिपन्न जग होऊ।।
अंतःकरण सुद्धि तब होवै।
अवसर जब सतसंग न खोवै।।
जे मन भ्रमर चखहिं मकरंदा।
प्रभु-पद-पंकज लहहिं अनंदा।।
अस जन चाहहिं नहिं धन-संपत्ति।
संपति मौन-निमंत्रन बीपति ।।
प्रभु कै भगति मिलै बिपन्नहिं।
सुख अरु चैन कहाँ सम्पन्नहिं।।
दुइनिउ नलकूबर-मणिग्रीवा।
बारुनि मदिरा सेवन लेवा।।
भे मदांध इंद्री-आधीना।
लंपट अरु लबार,भय-हीना।।
करबै हम इन्हकर मद चूरा।
चेत नहीं तन-बसन न पूरा।।
अहइँ इ दुइनउ तनय कुबेरा।
पर अब पाप इनहिं अस घेरा।।
जइहैं अब ई बृच्छहि जोनी।
रोकि न सकै कोउ अनहोनी।।
पर मम साप अनुग्रह-युक्ता।
कृष्न-चरन छुइ होंइहैं मुक्ता।।
दोहा-जाइ बीति जब बरस सत,होय कृष्न-अवतार।
पाइ अनुग्रह कृष्न कै, इन्हकर बेड़ा पार ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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