डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-26


 


राम-लखन-सिय बैठे जहवाँ।


सकल देव-मुनि आए तहवाँ।।


    करि स्तुति ते जहँ-तहँ गयऊ।


    रुचिकर कथा राम तब कहऊ।।


सुनि-सुनि कथा लखन-हिय हर्षहि।


लखि प्रभु मुदित सुमन नभ बरसहि।।


      बिरह-बिकल लखि नारद सोचहिं।


      फल मम साप राम अस भोगहिं।।


धारि हस्त निज आपनु बीना।


प्रभु पहँ गे मुनि ग्यान-प्रबीना।


      जाइ निकट सिर अवनत कइके।


      गावहिं चरित प्रभुहिं कहि-कहि के।।


सादर राम मुनिहिं उर लाए।


आसन दइ निज निकट बिठाए।।


     देखि राम अतिसय मन-मुदिता।


      हो प्रसन्न नारद तब कथिता।।


देहु नाथ बस इक बर मोंहीं।


जदपि सकल गति जानउ तोहीं।।


     मुनि तुम्ह सभ बिधि जानउ मोंहीं।


      कबहुँ न करुँ मैं मोंहीं-तोहीं ।।


भगत-दुराव न सपनहु करऊँ।


अस सुभाव मम तुम्ह भल जनऊँ।।


      कछु अदेय नहिं यहि जग माहीं।


      देइ सकहुँ नहिं मैं तुम्ह ताहीं।।


हर्षित मन तब नारद कहहीं।


प्रभु क नाम बहु अस श्रुति बदहीं।।


     राम-नाम सबतें बड़ होवै।


     भजि क जाहि जग निर्भय सोवै।।


राम-नाम अह ब्रह्म-प्रकासा।


औरउ नामहिं नखत अकासा।।


    अइसहिं प्रभु सभ जन उर बसहू।


     एवमस्तु रामहिं तब कहहू ।।


दोहा-जानि प्रभुहिं अति मुदित मन,नारद कहे सिहाहि।


        कारन कवन बता प्रभू,भयो न मोर बियाह ।।


 


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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


कबहुँ त छेद करहि मटका महँ।


छाछ पियहि भुइँ परतइ जहँ-तहँ।।


     लला तोर बड़ अद्भुत जसुमत।


     गृह मा कवन रहत कहँ जानत।।


केतनउ रहइ जगत अँधियारा।


लखतै किसुन होय उजियारा।।


     तापर भूषन सजा कन्हाई।


     मणि-प्रकास सभ परे लखाई।।


तुरतै पावै मटका-मटकी।


माखन खाइ क भागै छटकी।।


     लखतै हम सभ रत गृह-काजा।


     तुरतै बिनु कछु किए अकाजा।।


लइ सभ सखा गृहहिं मा आई।


खाइ क माखन चलै पराई ।।


दोहा-पकरि जाय चोरी करत,तुरतै बनै अबोध।


        भोला-भाला लखि परइ, धनि रे साधु सुबोध।।


       सुनतै जसुमति हँसि परीं,लीला-चरित-बखान।


       डाँटि न पावैं केहु बिधी,कान्हा गुन कै खान।।


       एक बेरि निज गृहहिं मा,माखन लिए चुराय।


       मनि-खंभहिं निज बिंब लखि,कहे लेउ तुम्ह खाय।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


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