डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


ग्वाल-बाल लइ साथे-साथे।


फोरहिं मटकी गोपिन्ह माथे।।


   घर मा घुसि के कबहुँ कन्हाई।


   ग्वाल-बाल सँग मक्खन खाई।।


भागहिं इत-उत पकरि न पावहिं।


जदपि कि गोपिहिं पाछे धावहिं।।


    बछरू छोरि पियावहिं गैया।


    चोरी-चोरी किसुन कन्हैया।।


डाँट परे जब हँसहिं ठठाई।


तब भागै जनु पीर पराई।।


     बड़ नटखट तव लाल जसोदा।


     कहि-कहि गोपिन्ह लेवहिं गोदा।।


बहु-बहु जतन करै तव लाला।


चोरी-चोरी जाइ गोसाला।।


      बछरू-गैयन छोरि भगावै।


      निज मुख कबहूँ थनइ लगावै।।


खाइ-बहावै-फोरै गागर।


तोर लला ई नटवर नागर।।


      ग्वाल-बाल सँग खाइक माखन।


       कछुक देइ ई बनरन्ह चाखन।।


सुनउ जसोदा गोपी कहहीं।


कबहुँ त लला तोर अस करहीं।।


    सोवत सिसुन्ह रोवाइ क भागै।


    माखन मिलै न गृह जब लागै।।


निन्ह हाथ नहिं पहुँचै छीका।


चढ़ि ऊखल पर तुरत सटीका।।


     अथवा धयि पीढ़ा दुइ-चारा।


      तापर चढ़ि तहँ पहुँचि दुलारा।।


कबहुँ-कबहुँ चढ़ि गोपिन्ह काँधे।


पहुँचै जहाँ लच्छ रह साधे।।


    मटका भुइँ उतारि सभ खावैं।


    जदपि सतावहिं पर बड़ भावैं।।


दोहा-तोर लला बड़ ढीठ अह,चंचल-नटखट-चोर।


        सुनहु जसोदा गृहहिं महँ,प्रबिसइ बिनु करि सोर।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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