चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-5
सभ मंत्री मिलि के बरियाई।
मोंहि सिंहासन पे बैठाई ।।
मारि असुर जब बाली आवा।
बैठे मोंहि सिंहासन पावा ।।
मारा मोंहे बहु घनघोरा।
नारी सहित लेइ सभ मोरा।।
तब मैं भगा होय भयभीता।
फिरउँ सकल जग मरता-जीता।।
आवे इहाँ न सापहिं मारे।
तदपि रहहुँ डरि बिनू सहारे।।
सेवक-गति सुनि बिकल राम जी।
फरकन लगीं भुजा अजान जी।।
सुनु सुग्रीव न होहु उदासू।
हरब तोर मैं सकल निरासू।।
मारब जाइ एक हम बाना।
बालि उड़ाउब कीट समाना।।
तासु प्रान कै लाला परहीं।
ब्रह्मा-रुद्र बचाइ न सकहीं।।
मीत-मीत के काम न आवै।
पातक मीत जगत कहलावै।।
साँच मीत जग बिपति-निवारक।
सरबसु कष्ट मीत कै धारक ।।
देवहि बिपति-काल सभ अपुना।
पुरवहि सदा मीत कै सपुना ।।
जाकर अस नहिं होय मिताई।
ते मूरख जग करै डिठाई ।।
बरनै मीत मीत-गुन निसि-दिन।
रखहिं छुपाइ के अवगुन पल-छिन।।
बरजे सदा कुमति कै संगा।
चरचा कइ-कइ सुमति-प्रसंगा।।
दोहा-मीत वही साँचा जगति, जे नहिं छोड़ै साथ।
संत कहहिं आपद पड़े,संग चलै गहि हाथ।।
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दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1
कारन कवन बतावउ मुनिवर।
साप दीन्ह तिन्ह नारद ऋषिवर।।
कारन कवन कि नारद कूपित।
नलकूबर-मणिग्रीवहिं सापित।।
सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।
गृहहिं कुबेर जनम दोउ लेवा।।
तनय कुबेरहिं बड़ अभिमानी।
धन-घमंड बस भए गुमानी।।
एक बेरि मंदाकिनि-तीरे।
बन कैलासहिं रुचिर-घनेरे।।
बारुणि-मदिरा कै करि पाना।
उन्मत भे मग चले उताना।।
बहु नारी लइ नाचत-गावत।
पुष्प-सुसोभित बन महँ धावत।।
कुदे नारि सँग जल मँदाकिनी।
कूदे जस हाथी सँग हथिनी।।
करत रहे जल क्रीड़ा बिबिधय।
मगनहिं ताता-थैया करतय।।
रहे जात वहि मग मुनि नारद।
देखत लीला ग्यान-बिसारद।।
लखि मुनि नारद जुवतिं लजाईं।
पहिनी पट ते तुरतहिं धाईं।।
पर नलकूबर अरु मणिग्रीवा।
नगन बदन रह लखि मुनि देवा।।
सुर कुबेर दोऊ सुत अहहीं।
देखि मुनिहिं पर लाजु न अवहीं।।
दोहा-कुपित होय मुनि दीन्ह तब,दोऊ कहँ अस साप।
जाहु ठाढ़ तुम्ह बनु तरू, ई अह मम अभिसाप।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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