डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-8


 


देखि राम पुनि बाली बोला।


सुफल जनम मम कह मुँह खोला।।


    कवन पाप अस भयो हमारा।


     जेहिं तें प्रभु बस हमहीं मारा।।


सुनु बाली तव बड़ अपराधू।


तुम्ह बहु सठ अरु कुमत-असाधू।।


     तनया-बहिन,अनुज-भामिनिहीं।


     निज सुत-बधू कुदृष्टिहिं तकिहीं।।


उनहीं बधे पाप नहिं होवहि।


इन्हकर बध करि जग नर सोहहि।।


      समुझि सके नहिं नारि-सिखावन।


      नहिं लखि सके प्रबल भुज पावन।।


होइ उन्मत्त दर्प-अभिमाना।


चाहे हरन अनुज कै प्राना।।


    निज प्रसाद बाली कह देवहु।


    प्रभु निज सरन मोंहि अब लेवहु।।


राम परसि बाली कै सीषा।


दीन्ह प्रान-तन अचल असीषा।।


    पा असीष अस बाली बोला।


    कछु नहिं अरथ प्रान अरु चोला।।


बड़-बड़ ऋषि-मुनि,दिग्गज संता।


कहि नहिं सके 'राम' मुख अंता।।


    प्रभु-प्रताप-बल कासी-संकर।


    करै अमर जग-जीव निरंतर।।


ई बड़ भागि मोर प्रभु मिलहीं।


अस सुजोग पुनि होय न जनहीं।।


     नेति-नेति कहि सभ श्रुति गावैं।


     जासु पार नहिं ऋषि-मुनि पावैं।।


पाइ तोहिं प्रभु प्रान न राखब।


सुर-तरु तजि बबूर नहिं पालब।।


दोहा-देहु मोंहि प्रभु एक बर, रहहुँ चरन तव दास।


        अंगद मम सुत दे सरन,रखहु सदा निज पास।।


                डॉ0हरि नाथ मिश्र


 


दसवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


अस कहि नारद कीन्ह पयाना।


नर नारायन आश्रम जाना ।।


     नलकूबर-मणिग्रीवहिं भ्राता।


     अर्जुन बृच्छ तुरत संजाता।।


तरु यमलार्जुन पाइ प्रसिद्धी।


जोहत रहे कृष्न छुइ सुद्धी।।


    नारद रहे किसुन कै भक्ता।


    निसि-बासर किसुनहिं अनुरक्ता।।


जानि क अस किसुनहिं लइ ऊखल।


खींचत गए जहाँ रह ऊगल ।।


     यमलार्जुन बिटपहिं नियराई।


     नलकूबर-मणिग्रीवहिं भाई।।


निज भगतहिं बर साँचहिं हेतू।


बिटप-मध्य गे कृपा-निकेतू।।


      रसरी सहित गए वहि पारा।


       अटका ऊखल बृच्छ-मँझारा।।


रज्जु तानि प्रभु खींचन लागे।


उखरि गिरे तरु मही सुभागे।।


     जोर तनिक जब लागा प्रभु कै।


     जुगल बिटप भुइँ गिरे उखरि कै।।


प्रगटे तहँ तब दूइ सुजाना।


तेजस्वी जनु अगिनि समाना।।


दोहा-दिग-दिगंत आभा बढ़ी,प्रगट होत दुइ भ्रात।


        करन लगे स्तुति दोऊ,परम भगत निष्णात।।


                  डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


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