डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सुहानी शाम के साये


 


तुम्हारी याद जब आई तो बरबस याद हैं आए,


नज़ारे ज़िंदगी के संग सुहानी शाम के साये।।


 


वो सारे कुदरती मंज़र नदी-दरिया किनारों के-


दरख़्तों के नरम सायों तले,जो वक़्त बिताए।


नहीं भूले भी वह भूले मधुर कलरव परिंदों का-


जिसे सुनते ही तुम शरमा मेरी आगोश में आए।।


 


तेरी बाँकी अदाओं के मधुर अहसास जितने हैं,


तेरे संकेत नैनों के जो,मेरी यादों में पलते हैं।


तेरी गज-चाल जो,वो मधुर मुस्कान होठों की-


सनम कैसे बता दें वो अदा तो आज भी भाए।।


 


मिलन की उस घड़ी का, हसीं अहसास मधुरिम था,


ज़मीं भूली,गगन भूला,मग़र जज़्बात मधुरिम था।


ख़ुदा से आरजू सुन लो सनम बस है यही इतनी-


के नज़ारे वो सभी लेकर सुहानी शाम वो आए।।


      


      हर एक पल तुम्हारे साथ जो उस शाम बीते थे,


       हसीं लम्हे,हसीं घड़ियाँ ,जो वादे भी किए थे।।


       वो आज भी मेरे हृदय में घर बसाए हैं-


       मुझे रहते जिलाते हैं सुहानी शाम के साये।।


 


मुझे उम्मीद है तुम फिर मिलोगे ऐ सनम मेरे,


उसी अंदाज,उसी आवाज़ में तू रू-ब-रू होके।


वही दरिया,वही साहिल, वही साये दरख्तों के-


सभी की याद फिर तेरे मिलन की आस जगाए।।


             सुहानी शाम के साये।।


                       ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


 


          अष्टावक्र गीता-17


 


निष्कलंक-अक्रिय-असंग,स्वयं-प्रकाशित आप।


शांति हेतु हो ध्यान रत,बस यह बंधन-पाप।।


 


काया नहीं,न जीव मैं, मेरा नहीं शरीर।


जीने की इच्छा रही,मम बंधन गंभीर।।


 


सिंधु-उर्मि सा यह जगत,मुझसे निर्मित,जान।


इसी सत्य को जान कर,भाग न दीन समान।।


 


बिरले जन ही जानते,आत्मा एक स्वरूप।


बिना किसी डर-भय कहें,हैं जगदीश अनूप।


 


तुमको क्या है त्यागना,किससे है संबंध।


शुद्ध रूप तुम अब करो,मात्र ब्रह्म-अनुबंध।।


 


दृश्यमान जग लहर सम,मैं हूँ उदधि समान।


त्याग-ग्रहण मत कर इसे,एकरूप रख ज्ञान।।


              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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