डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-1


 


कौशल्या-पुत्रम श्रीरामचंद्रम रघुवरम,


त्रिशिरादिशत्रु-नाशकम-श्रीदशरथ-सुतम।


श्यामलांगम ब्रह्मशंकरपूजितं सर्वप्रियम,


पाणौ चापसायकम दाशरथिम सीतापतिम।


कृपालुरामम दयालुरामम श्रीरामम नमाम्यहम।।


 


नमाम्यहम पवनतनयम हनुमंतम रामप्रियम,


अतुलितबलधामम स्वर्णाभबदनम कपीश्वरम।


रावणसैन्यबलघातकम मारुतिनंदनम महाकपीम,


ज्ञानिनामश्रेष्ठम गुणज्ञाननिधिम हनुमतबलवंतम।।


सत्य कहहुँ मैं हे प्रभु रामा।


करहु नाथ मम हिय बिश्रामा।।


    देहु मोंहि निज भगति निरभरा।


    चाहहुँ नहिं मैं अरु कछु अपरा।।


करहु दूर दुरगुन मम मन तें।


भागहिं काम-क्रोध यहि तन तें।।


     जामवंत कै सुनि अस बचना।


     कह हनुमंत धीर तुम्ह रखना।।


जोहत रहहु तुमहिं सभ भाई।


कंद-मूल-फल खाई-खाई।


     जब तक मैं इहँ लौटि न आऊँ।


      सीय खोज करि तुमहिं बताऊँ।।


तब हनुमंत नवा सिर अपुना।


सीय खोज कै लइ के सपना।।


     रामहिं भाव अपुन हिय रखि के।


     तुरतै चले कपिन्ह सभ लखि के।।


जलधि-तीर देखा इक परबत।


राम सुमिरि तहँ चढ़िगे हनुमत।।


     सहि न सकैं गिरि बल बलवंता।


     चढ़हिं जबहिं तेहिं पे हनुमंता।


कौतुक बस उछरैं हनुमाना।


तुरतै गिरि पाताल समाना।।


    राम क बान अमोघय नाईं।


    उछरि चलैं हनुमान गोसाईं।


सोरठा-थकित जानि हनुमान,आ बिचार नृप सिंधु-मन।


           कह धरि कै तुम्ह ध्यान,जाहु मैंनाकु अबहिं तहँ।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


 


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बारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


बहु-बहु नदी-कछारन जाहीं।


उछरहिं मेंढक इव जल माहीं।।


   जल मा लखि परिछाईं अपुनी।


   कछुक हँसहिं करि निज प्रतिध्वनी।।


संतहिं-ग्यानिहिं ब्रह्मानंदा।


स्वयम कृष्न तेहिं देंय अनंदा।।


  सेवहिं भगतहिं दास की नाईं।


इहाँ-उहाँ तिहुँ लोकहिं जाईं।।


रत जे बिषय-मोह अरु माया।


बाल-रूप प्रभु तिनहिं लखाया।।


    अहहिं पुन्य आतम सभ ग्वाला।


    खेलहिं जे संगहिं नंदलाला।।


जनम-जनम ऋषि-मुनि तप करहीं।


पर नहिं चरन-धूरि प्रभु पवहीं।।


     धारि क वहि प्रभु बालक रूपा।


      ग्वाल-बाल सँग खेलहिं भूपा।।


रह इक दयित अघासुर नामा।


पापी-दुष्ट कपट कै धामा।।


    रह ऊ भ्रात बकासुर-पुतना।


     तहँ रह अवा कंस लइ सुचना।।


आवा तहाँ जलन उर धारे।


अवसर पाइ सबहिं जन मारे।।


     करि बिचार अस निज मन माहीं।


     अजगर रूप धारि मग ढाहीं।।


जोजन एक परबताकारा।


धारि रूप अस मगहिं पसारा।।


    निज मुहँ फारि रहा मग लेटल।


    निगलै वहिं जे रहल लपेटल।।


एक होंठ तिसु रहा अवनि पै।


दूजा फैलल रहा गगन पै।।


     जबड़ा गिरि-कंदर की नाईं।


     दाढ़ी परबत-सिखर लखाईं।


जीभइ लाल राज-पथ दिखही।


साँस तासु आँधी जनु बहही।।


      लोचन दावानलइ समाना।


      दह-दह दहकैं जनु बरि जाना।।


सोरठा-अजगर देखि अनूप,कौतुक होवै सबहिं मन।


           अघासुरै कै रूप,निरखहिं सभ बालक चकित।।


                               डॉ0हरि नाथ मिश्र


                                9919446372


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