चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-17
तरुन-काल हम दुइनउ भाई।
गगन उड़े बहु रबि नियराई।
सहि न सका रबि-तेज जटायू।
भरि उड़ान तब चला परायू।।
मैं अभिमानी बड़ा गुमानी।
पुनि-पुनि उड़ि निज पंख जरानी।।
गिरा धड़ाम नभहिं तें भुइँ पर।
कीन्ह दया चंद्र मुनि मोंहि पर।।
मुनि कह सुनु त्रेता-जुग माहीं।
नर-तन प्रभु अइहैं यहिं राहीं।।
रावन राम क पत्नी हरहीं।
जासु बियोग राम यहिं अवहीं।।
खोजत-फिरतै कपी-समाजा।
आई अवसि करन प्रभु-काजा।।
तब तव भेंट तिनहिं सँग होई।
जीवन तोर पुनीतै होई ।।
पावहु तुम्ह तव पंख तुरंता।
लइ के कृपा राम भगवंता।।
मुनि कै बचन असत नहिं भवई।
प्रभु कै दरस आज मोंहि मिलई।।
प्रभु कै काजु करब हम अबहीं।
कछुक देर नहिं देखउ सबहीं।।
गिरि त्रिकूट पै लंका नगरी।
तिसु नृप रावन, सुदंर-सवँरी।।
चुरा सियहिं माँ लाइ के रावन।
रक्खा ताहि असोकहिं उपबन।।
लागहिं सीय बहु दुखी-उदासी।
चिंतित मन अति खिन्न-पियासी।।
गीध जाति मम दृष्टि अपारा।
देखि क सियहिं जाउँ नहिं पारा।।
बृद्ध गात मैं उड़ि ना पाऊँ।
मम मन पीड़ा कसक जताऊँ।।
सत जोजन सागर जे लाँघहिं।
सो मति धीर सीय पहँ जावहिं।।
दोहा-करउ न तुम्ह चिंता कोऊ, महिमा नाथ अपार।
करिहैं प्रभु अब जतन कछु,होई बेड़ा पार ।।
ग्यारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-7
सुनतै सभ जन भए अचंभित।
भईं नंद सँग जसुमति चिंतित।।
सभ जन आइ निहारैं किसुनहिं।
करैं सुरछा सभ मिलि सिसुनहिं।।
यहि क अनिष्ट करन जे चाहा।
मृत्य-अगिनि हो जाए स्वाहा।।
आवहिं असुर होय जनु काला।
मारहिं उनहिं जसोमति-लाला।।
साँच कहहिं सभ संत-महाजन।
होय उहइ जस कहहिं वई जन।।
कहे रहे जस गरगाचारा।
वैसै होय कृष्न सँग सारा।।
मारि क असुरहिं किसुन-कन्हाई।
सँग-सँग निज बलरामहिं भाई।।
गोप-सखा सँग खेलहिं खेला।
नित-नित नई दिखावहिं लीला।।
उछरैं-कूदें बानर नाई।
खेलैं आँखि-मिचौनी धाई।।
दोहा-नटवर-लीला देखि के,सभ जन होंहिं प्रसन्न।
भूलहिं भव-संकट सभें,पाइ प्रभू आसन्न।।
संग लेइ बलरामहीं,कृष्न करहिं बहु खेल।
लीला करैं निरन्तरहिं,ब्रह्म-जीव कै मेल।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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