डॉ0हरि नाथ मिश्र                  

गीत


करने पूर्ण प्यास-आस को,


नदी समंदर से मिलती।


हिम-शिख से वह उतर अवनि पर-


कल-कल,छल-छल नित बहती।।


         जग की शोभा बनी रहे,


          विटप सदा फल दिया करें।


         माँ सी प्यारी धरती माता-


         बूँदी-घात सदा सहती।।


फसल-फूल-फल-अन्न अवनि दे,


पेट है भरती जीवों का।


चीड़-फाड़ जब उसका होता-


कभी नहीं क्रंदन करती।।


        लुट जाती है गंध हवा में,


        चमन-पुष्प की शोभा जो।


        लुट जाने में सुख वो पाती-


        निज उर व्यथा नहीं कहती।।


सरल भाव से सिंधु सौंपता,


निज उर मोती दुनिया को।


पा मोती को छलिया दुनिया-


निज धन कह झोली भरती।।


        सूरज-चाँद-सितारे नभ के,


         मिल अँधियारा दूर करें।


        बिना तेल-बाती के इनकी-


        ज्योति सतत जलती रहती।।


जीवन के हर प्रश्न का उत्तर,


हल हर जटिल समस्या का।


देती क़ुदरत मुदित भाव से-


टाल-मटोल नहीं करती।।


       हम हैं प्रश्न और हम उत्तर,


       हार-जीत के कारण हम।


       सबक फूल-काँटों से सीखो-


       दोनों में कैसे निभती!!


                 © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


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