काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार नमिता गुप्ता "मनसी"

आत्म परिचय -


नाम - नमिता गुप्ता


साहित्यिक नाम - नमिता गुप्ता "मनसी"


शिक्षा - एम.ए. अंग्रेजी


 


साहित्यिक परिचय - "मुस्कराते पन्नें" व "दास्तान-ए-दोस्ती" में सह-लेखक हूं । "तारे जमीं पर" , "उर्वशी" "अक्षरवार्ता" "हस्ताक्षर" "द्रष्टिपात" " साहित्य त्रिवेणी" व "मेरी सहेली" में कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं । 


हाल ही में USA में भारतीय समूह में प्रचलित हिंदी साप्ताहिक अखबार "हम हिंदुस्तानी" में कविताएं प्रकाशित हुई हैं ‌।


मेरठ के 'दैनिक युवा रिपोर्टर" व "विजय दर्पण" अखबार में रचनाएं प्रकाशित हो रही हैं ।


 


( 1 )


ईश्वर की खोज जारी है..


 


मनमुटाव तो शुरुआत से ही रहा..


इसीलिए खींच दी गई


लक्ष्मण-रेखाएं ,


ईश्वर को ढूंढा गया


उससे मिन्नतें-मनुहार की ,


..फैंसला तब भी न हुआ !!


 


तब..


धर्मों को गढ़ा


जातियों को जन्म दिया


परम्पराओं की दुहाई दी


.. बंटवारा किया गया सभ्यताओं का भी


और


मनुष्यता कटघरे में ही रही !!


 


आरोप-प्रत्यारोप किए..


ईश्वर को दोषी करार दिया गया


कभी प्रश्न उठाए गए


उसके होने-न होने पर भी..


इसीलिए


स्वयं को भी ईश्वर घोषित किया..


..समस्याएं जस की तस !!


 


सुनों..


ईश्वर की खोज जारी है !!


 


                 ( 2 )


सुनों कवि..


 


सुनों कवि..


कर सकते हो तो करो


कि रास्ता दिखाओ


कागज़ों में दुबकी सभ्यताओं को ,


परिचित कराओ युवा पीढ़ी को


पुरातत्व होने के मायने ,


सिखाओ उन्हें भी कि


बुरा नहीं है प्राचीन होना ,


बुरा है, प्राचीन को सिर्फ प्राचीन ही समझना


हमेशा ,


उनके समक्ष प्रस्तुत करो


अधमिटे दस्तावेज


जिनका पूरा किया जाना बाकी है अभी !!


 


सुनों कवि..


कर सकते हो तो करो आविष्कार


ऐसी आग का


कि जिसका धुंआ कभी जहर न घोले


हवाओं में !!


 


सुनों कवि..


यदि पुनर्जीवित कर सकते हो 


पुरानी सभ्यताओं को 


तो इसकी खबर मुझे जरूर देना ,


देखना चाहूंगी कि 


कहां तक पहुंचाएगा मनुष्य को


ये पहिए का आविष्कार !!


 


सुनों कवि..


पढ़ सकते हो तो जरूर पढ़ना


वो दीवारों में जड़ी हुई प्रेम कहानियां ,


"सिर्फ देह का स्पर्श नहीं


मन को छू जाना होता है प्रेम "..


..हो सके तो खंगालकर लाना


सारी कविताएं


आत्मिक-प्रेम की !!


    


 


                 ( 3 )


 


 मैं इसलिए भी लिखती हूं..


 


मैं इसलिए भी लिखती हूं कि..


मुझे


कंक्रीट कल्चर से वशीभूत


भूल-भुलैया जैसे 


इस शहर में


हरे जंगल उगाना


नदियां तलाशना


और..


धूप के लिए जगह बनाना अच्छा लगता है !!


 


मैं इसलिए भी लिखती हूं कि..


थकी-हारी रातों में


जब तुम लिखना चाहो कोई प्रेम-पत्र ,


तब ये सारे नक्षत्र, चांद, तारे..


चुपचाप


तुम्हारे डाकिए बन जाएं


और..


मैं तलाशती रहूं


एक खत अपने लिए भी !!


 


मैं इसलिए भी लिखती हूं कि..


मैं गढ़ सकूं कभी न कभी


ऐसा कोई किरदार 


जो कुछ करे या न करे


पर बिना शर्त


कम से कम मुझे सुने तो सही !!


 


 


              ( 4 )


 


वो पीली सोच वाली कविता..


 


अभी तलाश रही हूं कुछ पीले शब्द


कि एक कविता लिखूं


पीली सी ,


ठीक उस पीली सोच वाली लड़की के जैसी


भीगती हुई


पीली धूप में तर-बतर ,


बटोरती हुई सपनों में


गिरे पीले कनेर 


जो नहीं जानती फूल तोड़ना ,


घंटों बतियाती है जो चुपचाप


पीले अमलतास से ,


निहारा करती है रोज


रिश्तों के पीले सूरजमुखी !!


 


उसने देखा


एक पीला पत्ता


बनाता हुआ जगह किसी नये हरे के लिए ,


एक पीली चोंच वाली चिड़िया आई


ले गई पीला पत्ता


घोंसले के लिए !!


 


..इस तरह सहेज रही है वो 


अनगिनत पीले बसंत


आगामी पतझड़ के लिए


ताकि खिलें रहें


कनेर.. अमलतास.. सूरजमुखी..


और चहकती रहें चिड़ियां


पीली धूप में !!


 


 


              ( 5 )


 


हर प्रलय में...


 


आज के हालातों में


हर कोई "बचा" रहा है कुछ न कुछ ,


पर, नहीं सोचा जा रहा है


"प्रेम" के लिए 


कहीं भी !!


 


हां, शायद 


"उस प्रलय" में भी


नाव में ही बचा रह गया था "कुछ"


कुछ संस्कृति..


कुछ सभ्यताएं..


और


.. थोड़ा सा आदमी !!


 


प्रेम तब भी नहीं था


आज भी नहीं है ,


..वही "छूटता" है हर बार


हर प्रलय में ,


पता नहीं क्यों !!


 



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