काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर '

परिचय-



मूलनाम : गंगा प्रसाद शर्मा


जन्म की तारीख :01-11-1962(सरकारी अभिलेख में)


जन्मस्थान : समशेर नगर


पारिवारिक परिचय:


माता -श्रीमती कमला देवी


पिता -स्व.शिव नारायण शर्मा


पत्नी-श्रीमती गायत्री शर्मा


संतान: पुत्री-आरती शर्मा, पुत्र:अनुराग शर्मा ,अभिषेक शर्मा 


शिक्षा-एम.ए.एम.एड.नेट(यू.जी.सी.फेलोशिप प्राप्त),पीएच.डी.


भाषाज्ञान-हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,उर्दू,फ़ारसी(आंशिक रूप से )


प्रकाशित कृतियाँ : 'सप्तपदी' और 'समय की शिला पर' के सहयोगी दोहाकार( संभावित प्रकाशन वर्ष1995-96),मेरी सोई हुई संवेदना (कविता संग्रह ,1998),हर जवाँ योजना परधान के हरम में(गज़ल संग्रह,1999),दारा हुआ आकाश (दोहा संग्रह ,1999),अफसर का कुत्ता,पुलिसिया व्यायाम(दोनों व्यंग्य संग्रह,2003-04), आधुनिक भारत के बहुरंगी दृश्य(2005, भारतीय आई.ए.एस.अधिकारियों के द्वारा लिखित निबंधों का संपादित संकलन),स्त्रीलिंग शब्द माला(2005,शब्दकोश),व्यावहारिक शब्दकोश (2005,अरबी-फ़ारसी के बहु-प्रचलित शब्दों का कोश),An introductory Hindi Reader (2006,specially prepared for non hindi speaking Indian and foreigners), दलित साहित्य का स्वरूप विकास और प्रवृत्तियाँ (2012,रमणिका फाउंडेशन के लिए)


सम्मान व पुरस्कार :साहित्य शिरोमणि सम्मान (1999,साहित्य-कला परिषद,जालौन, उ॰प्र॰),तुलसी सम्मान (2005,सूकरखेत, उ॰प्र॰),विश्व हिंदी सम्मान 2014


भाखा एवं इंदु संचेतना पत्रिकाओं का संपादन।


संपर्क का पता :


वर्तमान -ई-504,शृंगाल होम्स,पंचमुखी हनुमान के सामने,वी आई पी रोड,अलथाण, सूरत -395017


स्थाई-समशेर नगर, बहादुर गंज ,जनपद-सीतापुर (उ॰प्र॰)


टेलीफोन/मोबाइल नम्बर :8000691717


ई-मेल-dr.gunshekhar@gmail.com 


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कविता -1


पहाड़  उदास है


 


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जब से 


 


काट लिए गए हैं 


 


चोरी-चोरी 


 


उसके हाथ-पाँव


 


चीड़ और देवदार


 


पहाड़ 


 


बहुत डरा-डरा रहता है 


 


लुप्त हो गया है 


 


उसके भीतर का 


 


गीत-संगीत 


 


उड़  गए हैं उसके 


 


रागों के सारे पक्षी 


 


उदास-उदास रहता है 


 


इन दिनों


 


किसको दिखाए कि 


 


हो गया है 


 


पूरा अपंग अचल


 


कि अब नहीं 


 


सहा जाता कुल्हाड़ी  के 


 


हल्के से वार का भी दर्द 


 


सुबह-सुबह 


 


जैसे ही नींद टूटती है 


 


ओस से नहाई 


 


देह से 


 


कनेर के फूल-सा 


 


पीला-पीला चेहरा लिए 


 


अपने नेत्रों के 


 


निर्झर से 


 


चढ़ाने लगता है जल 


 


सूर्य देवता को


 


बीच-बीच में उभरे


 


पत्थरों के अधरों के 


 


मध्य के विवरों से 


 


फूटते मंत्रोच्चारों के साथ 


 


करता रहता है प्रार्थनाएँ  


 


मनु की संतानों की 


 


सद्बुद्धि के लिए 


 


कि अब और न हों हम


 


अक्षम 


 


और न हों 


 


निरुपाय.


 


कविता -2


 


साहित्य पढ़ने के पहले 


 


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यह क्या है कि 


 


जहां देखा पढ़ने लगे 


 


जिस-तिस की कविता-कहानी 


 


जिस-तिस के उपन्यास 


 


दलितों का साहित्य 


 


जिन्हें छूने में घिनाते थे 


 


हमारे प्रतापी पूर्वज 


 


सच पूछो तो 


 


यह समय


 


साहित्य पढ़ने का है ही नहीं 


 


जाति -धर्म पढ़ो 


 


राजनीतिक दल पढ़ो 


 


खास करके उस नेता को पढ़ो 


 


जिससे भला होना है 


 


और चुल्ल नहीं ही मानती है तो 


 


किसी का साहित्य 


 


पढ़ने के पहले


 


उसका धर्म पढ़ो 


 


धर्म के बाद जाति


 


जाति  के बाद कुल 


 


कुल के बाद गोत्र 


 


तब पढ़ो उसे 


 


जैसे मैं पढ़ता हूँ 


 


केवल ब्राह्मणों का साहित्य 


 


उसमें भी 


 


अपने प्रदेश के 


 


कान्यकुब्जों का  


 


वह इसलिए कि


 


बाबा तुलसी दास कह गए हैं 


 


"पूजिय बिप्र सकल गुन हीना। "


 


कविता -3


 


धान की पौध लड़कियाँ 


 


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जड़ से 


 


उखाड़ ली जाती हैं 


 


मूठी बनाकर 


 


फेंक दी जाती हैं


 


कीचड़ में 


 


फिर रोप दी जाती हैं 


 


किसी दूसरे खेत की 


 


अपरिचित माटी में 


 


कभी-कभार 


 


कुछ पलों के लिए 


 


मुरझा भले जाती हैं 


 


फिर आनन-फानन में 


 


तनकर खड़ी भी हो जाती हैं 


 


अपने आप मुटाती हैं 


 


लहलहाती हैं 


 


धनधान्य से भर देती हैं घर 


 


ऐसे जीवट वाली होती हैं ये


 


धान की पौध लड़कियां!


 


कविता -4


 


कोरोना काल की भूख 


 


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कभी लिखूँगा कविता


 


मज़दूरों की भूख पर कि


 


कितनी बड़ी थी इनकी भूख


 


पेट भरने के लाख प्रयास के बावज़ूद


 


नहीं भरे इनके पेट


 


हज़ारों संस्थाओं,भामाशाहों के खज़ाने 


 


हो गए खाली पर 


 


इनकी भूख नहीं मिटी तो नहीं मिटी 


 


बढ़ती रही बढ़ती रही रोज़ दर रोज़


 


'हाथ भर की लौकी के नौ हाथ के बिया' की तरह


 


आखिर कितना खाएंगे ये 


 


टीवी पर रोज़ घोषणाएँ हो रही हैं 


 


बताया जा रहा है 


 


इनको कितना दे दिया गया है


 


पहले ही 


 


फिर भी इनका पेट है कि भरता ही नहीं


 


कभी लिखूंगा ज़रूर इनकी ये कारस्तानियां


 


ऊँट जैसे भरे ले रहे हैं


 


अनाप-शनाप


 


इस कोरोना काल में 


 


आखिर कितना चाहिए इन्हें


 


अरे कोई तो रोको 


 


कोई तो समझाओ


 


कहो और कब तक चलोगे


 


हफ्तों से चले ही जा रहे हो लगातार


 


आखिर और कितना चलोगे पैदल?


 


ज़गह-ज़गह 


 


दोनों हाथ पसार लंगर का ले रहे हो मज़ा 


 


अरे रुको तनिक शर्म करो


 


और कितना खाओगे यार!


 


 


 


कविता -5


 


न बाबा न ! 


 


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मरने के पहले 


 


किसान ने चातक की तरह


 


स्वाति को टेरते हुए पूछा


 


'बरसेगा?'


 


बोला ,


 


'न कभी न '


 


छाती फटी  ज़मीन  से पूछा ,


 


'तू प्यासी जी पाएगी इक बरस ?' 


 


बोली,


 


'नहीं'


 


पत्नी से,बच्चों से 


 


पूछा ,


 


'बिना खाए रह लोगे 


 


कुछ दिन '


 


बोले,


 


'नहीं बाबा नहीं'


 


बैंक से पूछा, 


 


'कर्ज़ माफ़ होगा ?'


 


बैंक बोली ,'उद्योगपति हो'


 


किसान बोला,  


 


'नहीं' 


 


ज़वाब में बैंक ने दाएँ-बाएँ गर्दन हिलाई ,


 


' तब तो ....... नहीं.. कभी नहीं '


 


मरने के पहले 


 


कहाँ-कहाँ नहीं गया 


 


किस-किस के सामने  नहीं जोड़े हाथ 


 


किस- किस से नहीं गिड़गिड़ाया 


 


कोई तो बोलो 'हाँ' 


 


पर,


 


कोई  कहाँ बोला 'हाँ'


 


और फिरअंत में 


 


अपनी  ज़िंदगी से ही एक बार फिर पूछा-


 


'कभी अपने भी अच्छे दिन आएँगे?'


 


तू क्या कहती है रे! 


 


जी लें कुछ दिन ?'


 


वह  बोली,


 


'न बाबा न !'


@गुणशेखर


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