ग़ज़ल----
तू करता जो हर रोज़ यह दिल्लगी है
इसी से सनम यह हसीं ज़िन्दगी है
हुस्ने मतला---
ज़माने में यूँ खलबली सी मची है
हमारी तुम्हारी जो अब तक बनी है
इनायत करम है नवाज़िश तुम्हारी
किसी बात की फिर हमें क्या कमी है
रहा तीरगी का न नाम-ओ-निशां अब
मुहब्बत से हर सू हुई रौशनी है
तज्रिबे से जानी है यह बात हमने
मुहब्बतों के महलों में ही बंदगी है
जो कर देती थी मस्त सारे बदन को
वही आज ख़ुशबू चली आ रही है
उसी के सहारे मज़े में कटेगी
जो दौलत ये यादों की हम पर बची है
भलाई का दामन न छोड़ेगा *साग़र*
अभी आदमी में बचा आदमी है
🖋️विनय साग़र जायसवाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें