दयानन्द त्रिपाठी 'दया'

26/11 बरसी पर छोटी सी रचना....


 


स्वर्ण सवेरा था उस दिन 


उल्लास भरा था जन-जीवन में 


मुंबई की धरा कांप उठी थी


अताताइयों के गोली के खनखन में।


 


मानवता को शर्मसार कर 


कितनों के जीवन हर लिये


होता है निशिचर का संहार


पर आतंक के पोषक ललकार दिये।


 


आतंक की काली छाया से


हर तरफ पड़ी थीं लाशें


चारों ओर हाहाकार मचा था


बदहवास खड़ी थीं जिंदा लाशें।


 


बिखर गये कितनों के अपने


बिखर गये कितनों के सपनें


अरमानों की दुनियां से देखो


बिछड़ गये कितनों के कितनें।


 


दशाशीश सा पाक धरा पर 


फैला रहा आतंक की कहानी


विश्व धरा के हर कोने में


प्रचलित है यही हर जुबानी ।


 


जब-जब टकराकर किसी राम से 


रावण मारा जाता है।


नहीं पूजता कोई कभी भी


समूल नष्ट हो जाता है।


 


धैर्य बड़ा है भारत का


आघात भले ही तुम करते


तेरे ही हर कष्टों में


दया सहयोग लिए हम फिरते।



   - दयानन्द त्रिपाठी 'दया'


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