त्रिपदियाँ
नहीं किसी से कहना भाई,
अपनी बीती भी विपदाई।
होती जग में बहुत हँसाई।।
प्राण जाय पर वचन न जाए,
यही सोच तो मान बढ़ाए।
दृढ़-प्रतिज्ञ जग अति सुख पाए।।
कपट नहीं करना हे भाई,
छल से बूड़े सकल कमाई।
विमल हृदय होता सुखदाई।।
है उपकार सुजन-आभूषण,
कभी न करना निर्बल-शोषण।
करो सदा वंचित का पोषण।।
मानवता का धर्म निभाओ,
परम तोष-सुख इसमें पाओ।
इसी धर्म का पाठ पढ़ाओ।।
है यह धर्म सनातन अपना,
युग-युग से यह भारत-सपना।
नहीं लूटना बस है लुटना।।
लुटे वित्त तो मत घबराना,
वित्त-प्रकृति है आना-जाना।
लुटे वृत्त को नहीं है आना।।
©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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