डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत


*किताबों की भाषा*


समझ जिसने ली है किताबों की भाषा,


दरख़्तों की भाषा,परिंदों की भाषा।


वही असली प्रेमी है क़ुदरत का मित्रों-


उसे ज़िंदगी में न होती निराशा।।


                 समझ जिसने ली है........।।


बहुत ही नरम दिल का होता वही है,


नहीं भाव ईर्ष्या का रखता कभी है।


बिना भ्रम समझता वो इंसाँ मुकम्मल-


सरिता-समंदर-पहाड़ों की भाषा।।


              समझ जिसने ली है..........।।


जैसा भी हो, वो है जीता ख़ुशी से,


न शिकवा-शिकायत वो करता किसी से।


ज़िंदगी को ख़ुदा की अमानत समझता-


लिए दिल में रहता वो अनुराग-आशा।।


                 समझ जिसने ली है............।।


खेत-खलिहान,बागों-बगीचों में रहता,


सदा नूर रब का अनूठा है बसता।


यही राज़ जिसने है समझा औ जाना-


मुश्किलों से भी उसको न मिलती हताशा।।


               समझ जिसने ली है...........।।


हरी घास पे पसरीं शबनम की बूँदें


एहसास मख़मल का दें आँख मूँदे।


रवि-रश्मियों में नहायी सुबह तो-


होती प्रकृति की अनोखी परिभाषा।।


             समझ जिसने ली है............।।


हक़ मालिकाना है क़ुदरत का केवल,


बसाना-गवाँना बस अपने ही संबल।


गर हो गया क़ायदे क़ुदरत उलंघन-


ज़िंदगी तरु कटे बिन कुल्हाड़ी-गड़ासा।।


           समझ जिसने ली है..............।।


प्रकृति से परे कुछ नहीं है ये दुनिया,


प्रकृति से ही बनती-बिगड़ती है दुनिया।


नहीं होगा सम्मान विधिवत यदि इसका-


जायगा यक़ीनन थम, ये जीवन-तमाशा।।


      समझ जिसने ली है किताबों की भाषा।।


                      ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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