गीत
*किताबों की भाषा*
समझ जिसने ली है किताबों की भाषा,
दरख़्तों की भाषा,परिंदों की भाषा।
वही असली प्रेमी है क़ुदरत का मित्रों-
उसे ज़िंदगी में न होती निराशा।।
समझ जिसने ली है........।।
बहुत ही नरम दिल का होता वही है,
नहीं भाव ईर्ष्या का रखता कभी है।
बिना भ्रम समझता वो इंसाँ मुकम्मल-
सरिता-समंदर-पहाड़ों की भाषा।।
समझ जिसने ली है..........।।
जैसा भी हो, वो है जीता ख़ुशी से,
न शिकवा-शिकायत वो करता किसी से।
ज़िंदगी को ख़ुदा की अमानत समझता-
लिए दिल में रहता वो अनुराग-आशा।।
समझ जिसने ली है............।।
खेत-खलिहान,बागों-बगीचों में रहता,
सदा नूर रब का अनूठा है बसता।
यही राज़ जिसने है समझा औ जाना-
मुश्किलों से भी उसको न मिलती हताशा।।
समझ जिसने ली है...........।।
हरी घास पे पसरीं शबनम की बूँदें
एहसास मख़मल का दें आँख मूँदे।
रवि-रश्मियों में नहायी सुबह तो-
होती प्रकृति की अनोखी परिभाषा।।
समझ जिसने ली है............।।
हक़ मालिकाना है क़ुदरत का केवल,
बसाना-गवाँना बस अपने ही संबल।
गर हो गया क़ायदे क़ुदरत उलंघन-
ज़िंदगी तरु कटे बिन कुल्हाड़ी-गड़ासा।।
समझ जिसने ली है..............।।
प्रकृति से परे कुछ नहीं है ये दुनिया,
प्रकृति से ही बनती-बिगड़ती है दुनिया।
नहीं होगा सम्मान विधिवत यदि इसका-
जायगा यक़ीनन थम, ये जीवन-तमाशा।।
समझ जिसने ली है किताबों की भाषा।।
©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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