डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7


नहिं कोउ सत्ता प्रभू समाना।


महिमा प्रभुहिं न जाइ बखाना।।


    परे त्रिकालहिं नाथ प्रभावा।


    भूत-भविष्य न आज सतावा।।


लगहिं प्रकासित स्वयं प्रकासा।


जीव न अवनिहिं,जीव अकासा।।


     नहिं जड़ता,नहिं चेतन भावा।


     एकरसहिं रह तिनहिं सुभावा।।


सकल उपनिषद तत्वहिं ग्याना।


तिनहिं अनंत सार नहिं जाना।।


   सबके सब पर ब्रह्महिं रूपा।


   परम आत्मा कृष्न अनूपा।


रहै चराचर जासु प्रकासा।


सतत प्रकासित अवनि-अकासा।।


    अस लखि ब्रह्मा भए अचंभित।


    परम छुब्ध-स्तब्ध-ससंकित।।


जस कठपुतरी रह निस्प्राना।


ब्रह्मा भे समच्छ भगवाना।।


    तासु प्रभाव-तेज सभ बुझिगे।


    किसुनहिं लीला तुरत समुझिगे।।


सुनहु परिच्छित प्रभु भगवाना।


परे सकल तर्क जग माना।।


    स्वयं प्रकासानंदइ रूपा।।


    मायातीतइ नाथ अनूपा।।


कृष्न हटाए जब सभ माया।


बाह्य ग्यान तब ब्रह्मा आया।।


    मानउ ब्रह्मा जीवन पाए।


    भे सचेत सभ परा लखाए।।


निज सरीर अरु जगतहि देखा।


बृंदाबन सभ दिसा निरेखा।।


दोहा-बृंदाबन कै भूइँ पै, रहै प्रकृति कै बास।


        पात-पुष्प-फल-तरु बिबिध,बिबिधइ जीव-निवास।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


 


*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13


पुनि उठि किया बहुत सी माया।


केहु बिधि कपि कहँ जीत न पाया।।


     अंत ब्रह्म-सर साधा कपि पै।


    रखि के लाजु ब्रह्म-सर तेहिं पै।।


तुरत पवन-सुत मुर्छित भयऊ।


इंद्रजीत कपि बाँधेसु तहँऊ।।


    नाग-पास कपि बँधा जानि के।


    ब्रह्मा-गरिमा-मान मानि के।।


जेहि प्रभु भजत मिलै सुख-रंजन।


तिसु प्रभु-काजु करेसि कपि-बंधन।।


     नागहिं पास बाँधि हनुमाना।


      मेघनाद तब किया पयाना।


बहु निसिचर तब भागे-भागे।


सभा-मध्य कपि देखन लागे।।


     तब देखा कपि रावन-महिमा।


     अतुल-अकथ दसमुख कै गरिमा।।


देखा देवन्ह सभ दिग्पाला।


नाना बीर-भट्ट-महिपाला।।


     ठाढ़ि रहे निज-निज कर जोरे।


     अवनत सीष लाजु मुहँ बोरे।।


बैठि रहे तहँ हनुमत बीरा।


निडर-असंक धरे हिय धीरा।।


    सिंह निसंक सियार मँझारा।


    रह तहँ कपि लंकेस-दुवारा।।


बहु-बहु भाँति निरादर कीन्हा।


कपिहिं हास कर बदला लीन्हा।।


     पुनि सुधि निज सुत-बध कै कइके।


     कह सठ तुम्ह जानेउ नहिं हमके।।


होहु कवन तुम्ह मोंहि बतावउ।


केहिं बल पे बन मोर उजारेउ।।


     केहि अपराध बधेउ सभ निसिचर।


     अच्छहिं बधेउ कहहु केहिं बल पर।।


सुनु नरेस,बल नाथ हमारो।


अमित-अभेद-बिदित जग सारो।।


     पाइ जासु बल माया रचही।


     अखिल बिस्व जहँ हम-तुम्ह रहही।।


जाके बल सुनु सकल त्रिदेवहिं।


सभें रखहिं,प्रान हरि लेवहिं।।


दोहा-सुनु मूरख तुम्ह लंकपति,सुरन्ह काजु प्रभु मोर।


       आवहिं यहि जग बिबिध तन,दलन दुष्ट घनघोर।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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