रोटी
करतीं हैं बाध्य सबको केवल ये रोटियाँ,
घर-बार छुड़ा देतीं केवल ये रोटियाँ।
उद्योग-काम-धंधा कुछ करने के लिए-
करतीं सदा मजबूर केवल ये रोटियाँ।।
घर-बार छोड़कर ही जाते विदेश हैं,
सीता-सुरेश-सरला, नितिन-दिनेश हैं।
खटते हैं रात-दिन बस,पेट की ख़ातिर-
अपना वतन छुड़ातीं, केवल ये रोटियाँ।।
है जाता कोई चीन, कोई जापान को,
कोई गया ब्रिटेन तो कोई ईरान को।
हर देश के वासी की,पसंद अमेरिका-
करतीं अलग उन्हें ,केवल ये रोटियाँ।।
दुर्भाग्य से जब फैलती है कोई बीमारी,
कोहराम मचाती है,पुरजोर महामारी।
होता शुरू है तब,घनघोर पलायन-
जिसकी हैं जिम्मेदार केवल ये रोटियाँ।।
देंखें तो हर शहर-नगर व गाँव में,
है खेलती सियासत हर ठाँव-ठाँव में।
आरोप-प्रत्यारोप का होता गज़ब ये दौर-
अंदर हैं सूत्रधार केवल ये रोटियाँ।।
जब भाग-दौड़ करके,है लौटता श्रमिक,
पथ पर भटक-भटक कर आ जाता है पथिक।
तो उसके ठंडे चूल्हों को,दे-दे के गर्मियाँ-
झुलसातीं निज बदन को केवल ये रोटियाँ।।
श्रम का सही सबूत होतीं हैं रोटियाँ,
इंसान का वजूद भी होतीं हैं रोटियाँ।
बेकार है ये जीवन यदि पास में न रोटी-
करतीं हैं धन्य जीवन, केवल ये रोटियाँ।।
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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