डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-14


 


जदि सुमिरउ तुम्ह तन-मन रामहिं।


राज अखंड लंक तुम्ह पावहिं।।


    राम-नाम बिनु जीभ न सोहै।


    सुंदर-गठित सरीर न मोहै।।


जीवन तासु बिफल जग माहीं।


जिन्हके मुख प्रभु-नाम न आहीं।


    मूल रहित जस सजलहिं सरिता।


    सुमिरन बिनु नीरस धन-सहिता।।


सुनु लंकेस कहा मोर मानउ।


एकहिं बेरि सुमिरि प्रभु जानउ।।


     छन भर मा मन सीतल भवई।


     काम-क्रोध-मद-भरा जे रहई।।


भाव तोर जद्यपि कपि नीका।


मोंहि सिखावहु यहि नहिं ठीका।।


    अब जनु काल तोर नियराने।


     तेहिं तें रिपु तुम्ह मोर बखाने।।


मोंहि न भरम भरम तुमहीं को।


कियो भ्रमित तुम्ह हम सबहीं को।।


    कह रावन मारउ कपि यहि छन।


    सचिव सहित तब पहुँचि बिभीषन।।


सिर नवाइ कह सुनु लंकेसा।


दूत होय बाहक संदेसा।।


     बधे दूत जग होत हँसाई।


     नीति कहइ कि दोषु नृप पाई।।


दोहा-सुनि अस बचन बिभीषनै, नीति-रीति कै बात।


         बिहँसि कहा लंकेस तब,भेजु भंजि कपि-गात।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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