पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-11
जानत नहिं प्रभु पता-ठेकाना।
यहिं तें भवा नहीं इहँ आना।।
नहिं मैं सकहुँ तुमहिं लइ जाई।
बिनु प्रभु-आयसु नहिं करि पाई।।
माते करहु न कछु मन रोसू।
यहि मा कछुक नहीं प्रभु-दोसू।।
अइहैं इहाँ अवसि रघुबीरा।
तुमहिं ले जइहैं धरु हिय धीरा।
संग कपिन्ह लइ अइहैं स्वामी।
बधिहैं खलु रावन खल-कामी।।
तुमहिं छुड़ा लइ जइहैं माई।
रहहु मगन मन-चित मुसुकाई।।
सीता-मन संसय तब भयऊ।
बड़-बड़ भट रावन दल रहऊ।।
होके तब बिराट हनुमंता।
दइ भरोस सिय बल-भगवंता।।
लघु पुनि रूप पवन-सुत भवहीं।
प्रभु कै कृपा पंगु गिरि चढ़हीं।।
सुनि कपि-बचन तुष्ट भइँ सीता।
दइ असीष बल-बुद्धि बिनीता।।
प्रिय जन जानि राम कै कपि के।
अजर-अमर भव कह सिय डट के।।
दोहा-तुरत कहेउ तब पवन-सुत,हरषित मन-चित गातु।
दीन्ह असीष मों सीय अब,अचल भगति कै मातु।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र।
9919446372
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