*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-32
तब सुक-दूत कहेसि दसकंधर।
नाथ क्रोध तजि भजहु निरंतर।।
राम-नाम-महिमा बड़ भारी।
रामहिं भजै त होय सुखारी।।
त्यागि सत्रुता अरु अभिमाना।
करउ जुगत कोउ सिय लौटाना।।
सुनि अस बचन क्रुद्ध तब रावन।
मारा लात सुकहिं तहँ धावन।।
तब सुक-दूत राम पहँ गयऊ।
करि प्रनाम राम सन कहऊ।।
रामहिं तासु कीन्ह कल्याना।
अगस्ति-साप तें मुक्ती पाना।।
तजि राच्छस पुनि सुक मुनि रूपा।
गे निज आश्रम ऋषी स्वरूपा।।
लखि तब राम सिंधु-जड़ताई।
क्रोधित हो तुरतै रघुराई।।
बासर तीन गयउ अब बीता।
मानै नहिं यह मूर्ख अभीता।।
लछिमन लाउ देहु धनु-बाना।
सोखब दुष्ट अग्नि-संधाना।।
बंजर-भूमि पौध नहिं उगहीं।
माया-रत-मन ग्यान न लहहीं।।
लोभी-मन बिराग नहिं भावै।
नहिं कामिहिं हरि-कथा सुहावै।।
भल सुभाव नहिं भावै क्रोधी।
मूरख मीतहिं सदा बिरोधी।।
केला फरै नहीं बिनु काटे।
नवै न नीच कबहुँ बिनु डाँटे।।
अस कहि राम कीन्ह संधाना।
अंतर जलधि पयोनिधि पाना।।
बहुत बिकल जल-चर सभ भयऊ।
मछरी-मगर-साँप जे रहऊ ।।
दोहा-देखि बिकल सभ जलचरन्ह,बिप्रहिं-रूप पयोधि।
कनक-थार महँ मनि लई, किया तुरत अनुरोध।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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