डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-32


तब सुक-दूत कहेसि दसकंधर।


नाथ क्रोध तजि भजहु निरंतर।।


     राम-नाम-महिमा बड़ भारी।


     रामहिं भजै त होय सुखारी।।


त्यागि सत्रुता अरु अभिमाना।


करउ जुगत कोउ सिय लौटाना।।


     सुनि अस बचन क्रुद्ध तब रावन।


      मारा लात सुकहिं तहँ धावन।।


तब सुक-दूत राम पहँ गयऊ।


करि प्रनाम राम सन कहऊ।।


     रामहिं तासु कीन्ह कल्याना।


     अगस्ति-साप तें मुक्ती पाना।।


तजि राच्छस पुनि सुक मुनि रूपा।


गे निज आश्रम ऋषी स्वरूपा।।


    लखि तब राम सिंधु-जड़ताई।


    क्रोधित हो तुरतै रघुराई।।


बासर तीन गयउ अब बीता।


मानै नहिं यह मूर्ख अभीता।।


     लछिमन लाउ देहु धनु-बाना।


      सोखब दुष्ट अग्नि-संधाना।।


बंजर-भूमि पौध नहिं उगहीं।


माया-रत-मन ग्यान न लहहीं।।


    लोभी-मन बिराग नहिं भावै।


     नहिं कामिहिं हरि-कथा सुहावै।।


भल सुभाव नहिं भावै क्रोधी।


मूरख मीतहिं सदा बिरोधी।।


    केला फरै नहीं बिनु काटे।


     नवै न नीच कबहुँ बिनु डाँटे।।


     अस कहि राम कीन्ह संधाना।


      अंतर जलधि पयोनिधि पाना।।


बहुत बिकल जल-चर सभ भयऊ।


मछरी-मगर-साँप जे रहऊ ।।


दोहा-देखि बिकल सभ जलचरन्ह,बिप्रहिं-रूप पयोधि।


         कनक-थार महँ मनि लई, किया तुरत अनुरोध।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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