डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गोवर्धन-धारण*


आयसु पाइ इंद्र भगवाना।


छाइ गए ब्रज बादर नाना।


    प्रबल बृष्टि भइ मुसलाधारा।


    तड़ित-तड़क सँग अंधड़ सारा।।


ग्वाल-बाल, पसु-पंछी सबहीं।


काँपि गए जब ठंडक परहीं।।


    धाइ गए तब किसुनहिं सरना।


     निज-निज सिसुन्ह सहित प्रभु-चरना।।


तुरत किसुन गिरिराज गोबरधन।


खेलहिं-खेल उखारे वहिं छन।।


    छतरी नियन उठा कर लीन्हा।


     पुष्प-छत्त जस बालक कीन्हा।।


सात दिवस तक गिरि कर गहि के।


रह ठाढ़े गिरधारी ठहि के ।।


     खाए-पिए बिनू बनवारी।


     रहे करत ब्रज कै रखसारी।।


अस लखि के तब किसुनहिं माया।


बहु-बहु इंद्र चित्त घबराया ।।


    बरजे तुरत सकल मेघन कहँ।


    रहे जे बरसत बहु जल ब्रज महँ।।


छटि गे बादर,थम गइ बूनी।


पवन बेग कै गति भइ सूनी।


    बरसे सुमन देव-गन्धर्वा।


    साध्य-सिद्ध-चारन जे सर्वा।।


कीन्ह स्तुती करि गुन -गाना।


करि-करि किसुनहिं चरित बखाना।।


     लइ दधि-चाउर-जल निज हाथे।


     मंगल-तिलक कीन्ह प्रभु-माथे।।


                   डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


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