डॉ0हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-29


केहि बिधि उदधि पार सब जाई।


कह रघिनाथ बतावउ भाई।।


     सागर भरा बिबिध जल जीवहिं।


     गिरि सम उच्च उरमिं तट भेवहिं।।


प्रभु तव सायक बहु गुन आगर।


सोखि सकत छन कोटिक सागर।


    तदपि नीति कै अह अस कहना।


    सिंधु-बिनय श्रेष्ठ अह करना।।


जलधि होय तव कुल-गुरु नाथा।


तासु बिनय झुकाइ निज माथा।


      पार होंहिं सभ सिंधु अपारा।


      कह लंकापति प्रकटि बिचारा।।


तब प्रभु कह मत तोर सटीका।


पर लागै नहिं लछिमन ठीका।।


     लछिमन कह नहिं दैव भरोसा।


      अबहिं तुष्ट कब करिहैं रोषा।।


निज महिमा-बल सोखहु सागर।


नाघहिं गिरि पंगुहिं तुम्ह पाकर।।


     दैव-दैव जग कायर-बचना।।


      अस नहिं सोहै प्रभु तव रसना।।


राम कहे सुनु लछिमन भाई।


होहि उहइ जे तव मन भाई।।


      जाइ प्रनाम कीन्ह प्रभु सागर।


      बैठे तटहिं चटाइ बिछाकर।।


पठए रहा दूत तब रावन।


जब तहँ रहा बिभीषन-आवन।


     कपट रूप कपि धरि सभ उहवाँ।


      खूब बखानहिं प्रभु-गुन तहवाँ।।


तब पहिचानि तिनहिं कपि सबहीं।


लाए बान्हि कपीसहिं पहहीं ।।


     कह सुग्रीवा काटहु काना।


     काटि नासिका इनहिं पठाना।।


अस सुनि कहे दूत रिपु मिलकर।


करहु कृपा राम प्रभु हमपर।।


     तब तहँ धाइ क पहुँचे लछिमन।


     बिहँसि छुड़ाइ कहे अस तिन्हसन।।


जाइ कहउ रावन कुल-घाती।


मोर सनेस देहु इह पाती।।


     सीय भेजि तुरतै इहँ आवै।


      नहिं त तासु प्रान अब जावै।


दोहा-अस सनेस लइ दूत सभ,किन्ह लखनहीं प्रनाम।


        पहुँचे रावन-लंक महँ,बरनत प्रभु-गुन नाम।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...