डॉ0हरि नाथ मिश्र

गीत(16/16)


जब भी कविता लिखने बैठूँ,


लिख जाता है नाम तुम्हारा।


इसी तरह नित पहुँचा करता,


तुझ तक प्रिये प्रणाम हमारा।।


     लिख जाता है नाम तुम्हारा।।


 


अक्षर-अक्षर वास तुम्हारा,


घुली हुई हो तुम साँसों में।


रोम-रोम में रची-बसी तुम,


सदा ही रहती विश्वासों में।


जब डूबे मन भाव-सिंधु में-


मसि बनकर तुम बनी सहारा।।


    लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


 


हवा बहे ले महक तुम्हारी,


कलियाँ खिलतीं वन-उपवन में।


तेरी ले सौगंध भ्रमर भी,


रहता रस पीता गुलशन में।


हाव-भाव सब हमें बताती-


बहती सरिता-चंचल धारा।।


    लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


 


तेरा प्रेमी कवि-हृदयी है,


पंछी में भी तुमको पाता।


चंचल लोचन हर हिरनी का,


इसी लिए तो उसको भाता।


चंदा की शीतल किरणें भी-


भेद बतातीं तेरा सारा।।


     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


 


तुम्हीं छंद हो सुर-लय तुमहीं,


तुम्हीं हो कविता का आधार।


जहाँ लेखनी मेरी भटके,


तुम्हीं हो करती सदा सुधार।


संकेतों की भाषा तुमहीं-


भाव-सिंधु का प्रबल किनारा।।


     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


   


भाव-सिंधु में बनकर नौका,


पार कराती तुम सागर को।


कविता-मुक्ता मुझको देकर,


उजला करती रजनी-घर को।


तेरी छवि दे शब्द सलोने-


चमकें जैसे गगन-सितारा।।


     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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