पंचम चरण(श्रीरामचरितबखान)-27
कह बिठाइ लछिमन के संगा।
कहु नरेस परिवार-प्रसंगा।।
बोले प्रभु निवास खल-देसा।
होय तुम्हारइ सुनहु नरेसा।।
कस तुम्ह तहँ अस सहेसि अनीती।
तव हिय बस अति निष्छल प्रीती।।
नरक-निवास होय बरु नीका।
केतनहुँ सुखद कुसंगइ फीका।।
अब तव चरन-सरन मैं आया।
हे प्रभु करउ मोंहि पे दाया।।
जब तक बिषय-भोग-रत जीवइ।
तब तक उहइ गरल-रस पीवइ।।
काम-क्रोध-मद-मोह-बिमोचन।
होय दरस करि राजिव लोचन।।
होत उदय प्रकास प्रभु सूरज।
भागै मद-अँधियारा दूखज।।
कुसलइ रहहुँ पाइ रज चरना।
कृपा-हस्त प्रभु मम सिर धरना।
भौतिक-दैहिक-दैविक-सूला।
पा प्रभु-सरन होंय निरमूला।।
मों सम निसिचर अधम-अधर्मी।
लेइ सरन प्रभु कीन्ह सुधर्मी।।
सुनहु तात जे आवै सरना।
तजि मद-मोह-कपट अरु छलना।।
मातुहिं-पिता-बंधु-सुत-नारी।
सम्पति-भवन,खेत अरु बारी।
देहुँ भगति बर संत की नाईं।
पाटहुँ तिसु मैं भव-भय खाईं।।
रखहुँ ताहि मैं निज उर माहीं।
जिमि लोभी धन-संपति ध्याहीं।।
सुनहु नरेस सकल गुन तुझमा।
तुम्ह मम प्रिय सभतें इह जग मा।
दोहा-जे जग महँ परहित करै, निरछल मनहिं सनेम।
सुनहु तात तेहिं हिय रखहुँ,सदा करहुँ तेहिं प्रेम।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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