डॉ0निर्मला शर्मा

मानवीय घड़ी सी माँ


 


मानवीय घड़ी सी माँ!


 अपने कर्तव्य पर अडिग माँ!


भोर के धुंधलके से ही 


शुरू होती है जिसकी दिनचर्या


जो चलती है


 रात की चादर समेटे 


चाँद के अलसाये सायों के साथ


भूख प्यास न जाने !


उसे सताती भी है या नहीं


 वह तो 


संतान को पेटभर खाते देख ही


 तृप्त हो जाती है 


उसकी जिव्हा का 


न कोई स्वाद है 


और जीवन का अपना 


कोई रंग नहीं 


रिश्तों की बगिया को सजाती


 हर अहसास को दबाती


 केवल मातृत्व के 


आभूषण से सजी


 जीवनदायिनी माँ 


सर्दी हो या गर्मी 


बारिश हो या बसन्त 


कोई ऋतु उसे न डिगाती


 चलता है उसका 


उपक्रम अनवरत 


बदले में कुछ भी न चाहती 


परिवार रहे उसका सलामत


 हर पल यही दुआ माँगती 


भागती, दौड़ती ,घबराती 


अविराम काम करती 


नटखट संग खेले कभी 


घर के काम निपटाती


 कभी चेहरे पर अपने 


न कोई शिकन लाती 


मानवीय घड़ी सी अड़ी 


सदैव अपने काम समय से निपटाती


माँ!!


 


डॉ0निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


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