*कल्पनालोक की उड़ान*
*(चौपाई ग़ज़ल)*
जीवन आह, बहुत मस्ताना ।
बना परिंदा गगन दीवाना।
है उड़ान कितना मनभावन।
इच्छा से सबकुछ बन जाना।।
कभी थिरकना यमुना कूले।
कभी-कभी गंगा तट जाना।।
कभी समाना सिंधु लहर में।
कभी निकल कर बाहर आना।।
जब चाहो कदंब पर बौठे।
गीत श्याम के मधुर सुनाना।।
उड़ना कभी बाग के ऊपर।
कभी किसी घर में घुस जाना।।
सकल जगत का मालिक बनकर।
चाहो जहाँ वहीं उड़ जाना।।
सारी इच्छा पूरी करते।
सहज विचरते चलते जाना।।
प्रेम लोक की अगर चाह है।
प्रेम काव्य कौशल दिखलाना।।
चलते जाना प्रेम पंथ पर।
प्रेम गीत को लिखते जाना।।
गाते रहना मधुर गीत को।
सबको वश में करते जाना।।
ऐसा गाना गाना वन्दे।
छापा अमिट छोड़ते जाना।।
कभी मनुज बन कभी परिंदा।
जैसी इच्छा बनते जाना।।
बन स्वतंत्रता का प्रतीक जिमि।
जीवन का आनंद मनाना।।
नहीं कल्पना लोक दूर है।
यह अंतस का जगत सुहाना।।
मन चिंतन में सृष्टि व्योम है।
खुद से खुद को सहज सजाना।।
राजकुमार बने खुद उड़ कर।
स्वयं स्वयंबर दिव्य रचाना।।
पूरी सृष्टि करस्थ अवस्थित।
इच्छाओं का जश्न मनाना।।
देवदूत बन इस जगती का।
सतत स्नेह की अलख जगाना।।
सबके अंतःपुर में जा कर।
प्रेम दिवाली रोज मनाना।।
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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