*तुझे देखकर*
तुझे देखकर प्रेम हो गया।
अपने में ही स्वयं खो गया।।
ऐसा कैसे हो जाता है?
मन दीवाना बन जाता है।।
आँख देखती मन मुस्काता।
दिल में गहन प्रेम छा जाता।।
पगलाया मन प्रेम ढूढ़ता।
तुझसे मिलने की उत्सुकता।।
बिन देखे बेचैनी बढ़ती।
मिलने की अति इच्छा जगती।।
प्रेम छिपा है सदा दृष्टि में।
दृष्टि समायी प्रेम वृष्टि में।।
प्रेम वॄष्टि को दृश्य चाहिये।
तुझसा पावन स्पृश्य चाहिये।।
स्पृश्य वही जिसका दिल पावन।
सौम्य सुघर शालीन सुहावन।।
किससे कहाँ प्रेम हो जाये?
किसको कहाँ कौन पा जाये??
प्रेम जगेगा किसे देखकर?
मन भागेगा कहाँ जा किधर??
नहीं पता कुछ भी चलता है।
टिक जाता मन तब लगता है।।
किसी भीड़ में प्रेम वहाँ है।
नजर जाय गड़ जहाँ वहाँ है।।
यह नजरों खेल-कूद है।
महा सिंधुमय अमी बूँद है।।
यह अमृत की पावन सरिता।
कवि की यह अति मोहक कविता।।
कविता में बस तुम रहते हो।
तुम लिखते बोला करते हो।।
प्रेमरूपमय कवि भावों को।
देते ऊर्जा धो घावों को।।
दृश्य परम प्रिय मधुराकारा।
सहज सुधानन प्रेम पिटारा।।
इसीलिए तुम प्राण बने हो।
रामवाण परित्राण बने हो।।
तुझे हृदय में रखकर जपता।
तेरा माला सदा फेरता।।
तुम्हीं सुघर हो राह परम प्रिय।
रचना बनकर सतत बहो हिय।।
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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