नूतन लाल साहू

वाह रे मन


 


कितना अजीब है मन


जब हम गलत होते हैं


तब हम समझौता चाहते हैं


परन्तु जब दुसरा गलत होता है


तब हम न्याय चाहते हैं


किसी गैर की तरक्की देखकर


मन अधीर हो जाता हैं


हम क्यों नहीं सोचते गंभीरता से


कि सबका अपना अपना


भाग्य लकीर होता है


कितना अजीब है मन


किसी गैर की फायदा पर जलते हैं


उन्हें नुकसान होने पर हंसते हैं


मन यह क्यों नहीं सोचता है कि


नियत ठीक नहीं होने पर


संबंध टूट सकता है


कितना अजीब है मन


मत कीजिए ऊपर से दोस्ती


न रखे भीतर,विष के ताज


दर्द पराया आजकल


समझ सका है कोय


यदि नहीं समझ पाया


विधि का अटल विधान तो


रह जाओ मौन


कितना अजीब है मन


एक सीमा तक प्रभु जी भी


कर लेता है बर्दास्त


अति सर्वत्र वर्जित हैं


जैसे चिड़िया उड़ती है आकाश में


पर दाना तो धरती पर ही होता है


कितना अजीब है मन


जब हम गलत होते हैं


तब हम समझौता चाहते हैं


परन्तु जब दुसरा गलत होता है


तब हम न्याय चाहते हैं


नूतन लाल साहू


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