ग़ज़ल--
मीरो-ग़ालिब की तरह नाम हमारा होता
शेरगोई को अगर और निखारा होता
तीरगी देख के इक दीप तो बारा होता
नाम दुनिया की निगाहों में तुम्हारा होता
देख हर रुख को सफ़ीना जो उतारा होता
नाख़ुदा फिर न तुझे हमने पुकारा होता
वक़्त की नब्ज़ को पहचान सफ़र गर करते
दूर हमसे नहीं तूफाँ में किनारा होता
फ़िक्र हमको जो नहीं होती तुम्हारी हमदम
फिर न इल्ज़ाम कोई हमको गवारा होता
हम ज़माने में उजालों को लिए फिरते रहे
*हमने ख़ुद को भी सलीक़े से संवारा होता*
वक़्त के सामने मजबूर नज़र आते हम
हमको बच्चों ने दिया जो न सहारा होता
इस ज़माने में भले लोग बहुत हैं अब भी
वर्ना दुनिया का हसीं कैसे नज़ारा होता
शुक्रिया लौट के *साग़र* जो चले आये तुम
बिन तुम्हारे कहाँ फिर अपना गुज़ारा होता
🖋️विनय साग़र जायसवाल
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