ग़ज़ल
उम्मीद मेरी आज इसी ज़िद पे अड़ी है
हर बार तेरी सिम्त मुझे लेके मुड़ी है
मिलने का किया वादा है महबूब ने कल का
यह रात हरिक रात से लगता है बड़ी है
मैं कैसे मिलूँ तुझसे बता अहले-ज़माना
पैरों में मेरे प्यार की ज़ंजीर पड़ी है
तू लाख भुलाने का मुझे कर ले दिखावा
तस्वीर अभी साथ में दोनों की जड़ी है
जब चाहा कहीं और नशेमन को बना लूँ
परछाईं तेरी आके वहीं मुझसे
लड़ी है
जिस वक़्त गया हाथ छुड़ाकर वो यहाँ से
तब हमको लगा जैसे कयामत की घड़ी है
मज़हब की सियासत का चलन देखो तो *साग़र*
हर सिम्त यहाँ ख़ौफ़ की दीवार खड़ी है
🖋️विनय साग़र जायसवाल
23/11/2020
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