डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-13

स्वामि-भक्त बड़ बानर जाती।

मालिक-हित नाचै बहु भाँती।।

     मैं गुन-ग्राही बालि कुमारा।

     सहहुँ तुम्हारै बचन कुठारा।।

मैं जानउ तुम्हरो गुन रावन।

बान्हि न सकउ तुमहिं कपि लावन।।

     लंका जारि हता सुत तोरा।

     करि ना सक्यो अहित तुम्ह थोरा।।

यहिं तें हो डिढ़ाइ मैं आई।

कहुँ न लाजि-रोष तोहिं भाई।।

     तुमहिं भछउ निज पितुहीं बंदर।

     अस कहि तुरत हँसा दसकंधर।।

तुम्हरो बालि-मिताई जानी।

कीन्हा नहिं तव बध अभिमानी।।

     कित रावन बताउ जग माहीं।

      मैं जानउँ जे सुनु अब आहीं।।

एक त बँधा रहा घुड़साला।

जे जीतन बलि गयउ पताला।।

    खेलत सिसुहिं रहे जेहिं पीटत।

     बलि कै दया ल भागा छूटत।।

दूजा रहा सहस भुज पाई।

जानि जंतु बिचित्र घर लाई।।

    पाइ पुलस्ति ऋषिहिं कै दाया।

     मुक्ति सहस भुज तें तब पाया।।

रावन एक बताउँ सकुचाई।

बालि-काँखि महँ देखा भाई।।

    कवन होहु तुम्ह मोहिं बतावउ।

    छाँड़ि क्रोध व खीझ,जतावउ।।

सुनु कपि मैं रावन बलवाना।

मम भुज-बल कैलासहिं जाना।।

    मोर भगति जानहिं महदेवा।

     निज सिर-सुमन चढ़ा जे देवा।।

अवगत मम बल भल दिगपाला।

चुभहुँ तिनहिं उर धँसि जिमि भाला।।

    टूटे मूली इव तिन्ह दंता।

     भिरत देरि नहिं भगे तुरंता।।

मम डोलत महि हीलत ऐसे।

डगमग नाव चढ़त गज जैसे।।

     तू ललकारै इहवाँ आई।

      लागत काल तोर बउराई।।

दोहा-कहेसि मोहिं तुम्ह अति लघू,औरु सिखावत मोंहि।

         तुम्ह सम जग नहिं दुष्ट-सठ, बुद्धि-ग्यान नहिं तोहिं।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

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