डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-14

अंगद-क्रोधइ भवा अपारा।

सुनि रावन बरनत गुन सारा।

     कह अंगद सुनु सठ-अभिमानी।

      अचरज बड़ तुम्ह राम न जानी।।

जाकर परसु सहसभुज मारा।

नृपहिं असंख्य-अनेक पछारा।।

      तासु दर्प रामहिं लखि भागा।

      राम न नर सुनु अधम-अभागा।।

राम न मनुज जिमि गंग न सरिता।

दान न अन्न,न रस अमरीता ।।

    पसु नहिं कामधेनु जग जानै।

     कल्प बृच्छ नहिं तरु कोउ मानै।।

कामदेव नहिं होंय धनुर्धर।

राम ब्यापहीं सकल चराचर।।

     गरुड़ नहीं साधारन चिरई।

     चिंतामनि नहिं पाथर भवई।।

धाम बिकुंठ मान जे लोका।

ऊ मूरख माटी कै ढोंका।।

    भगति अखंड राम जग माहीं।

    लाभ न मानहु रे सठ ताहीं।।

सुनु रावन, नहिं सेष बियाला।

प्रभु हमार बिराट-विकराला।।

     पुरुष नहीं प्रभु राम दयालू।

     महिमा-मंडित राम कृपालू।।

कपि न होंहिं हनुमत दसकंधर।

लंक जराइ गए सुत-बध कर।।

     मान मरदि तव बाग उजारा।

     करि न सकउ कछु,रहि बेचारा।।

तजि सभ बयरु औरु चतुराई।

भजहु तुरंत राम-रघुराई ।।

    जदि बिरोध कीन्ह रघुराई।

    संकर-ब्रह्म न सकें बचाई।।

रघुबर जदि सकोप सर मारहिं।

एक बान दस सीसहिं ढाहहिं।।

    कंदुक इव लुढ़कहिं तव आनन।

     कपि सभ खेलहिं आनन-फानन।।

अस सुनि रावन जर तन-बदना।

जरत अनल जनु बहु घृत पड़ना।।

दोहा-जानत नहिं तुम्ह मोर बल,अब मत करउ बिबाद।

        कुंभकरन मम भ्रात-सुत,इंद्रजीत-घननाद ।।

                  डॉ0हरि नाथ मिश्र

                   9919446372

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