डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 भावोद्गार(गीत)

सुनो, साजन चलो कहीं और,

छोड़ इस नगरी को।

यहाँ बसते हैं आदमखोर-

छोड़ इस नगरी को।


जिसको देखो रहे गड़ाए,

अपनी नज़रों को मुझ पे।

भूखी-गंदी उनकी नज़रें,

मारें झपट्टा भी मुझपे।

 ये करते न इज़्जत पे गौर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।


धन के लोभी,पद के लोभी,

ये लोभी हैं दौलत के।

नारी की गरिमा से खेलें,

ये लोभी हैं शोहरत के।

नहीं इनका ठिकाना न ठौर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।


इनसे बचकर अब है रहना,

ये हैं भ्रष्ट विचारों के।

 घुन हैं लगे सोच में इनकी,

ये भंडार विकारों के।

हो न रातों में इनकी भोर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।


भोले तुम हो,मैं भी भोली,

यह नगरी मक्कारों की।

कपट-दंभ, छल-छद्म की नगरी,

यह नगरी नक्कालों की।

ये हैं नगरी-निवासी चोर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।


उड़ें पखेरू मस्त गगन में,

बहे पवन शीतल-शीतल।

प्रकृति पसारे बाँह खड़ी है,

लिए हृदय अपना निर्मल।

करे स्वागत वह भाव-विभोर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को,

यहाँ बसते हैं आदमखोर-छोड़ इस नगरी को।।

          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

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