षष्टम चरण (श्रीरामचरितबखान)-3
छिड़कि गंग-जल पा परमेस्वर।
जाको मिलहिं दरस रामेस्वर।।
राम-सेतु जे दरसन करहीं।
बिनु श्रम ते भव-सिंधुहिं तिरहीं।।
निपुन नील-नल सेतु बनावहिं।
डूबत पाथर ऊपर आवहिं।।
नहिं ई हवै बंधु-चतुराई।
नहिं ई होय कपिन्ह निपुनाई।।
प्रभु-प्रताप कै महिमा भारी।
बना सेतु अस सिंधु मँझारी ।।
सुदृढ़ सेतु बिलोकि रघुराई।
हरषित हों पुनि-पुनि तहँ जाई।
गर्जत-तर्जत मरकट बृंदा।
चलहिं मुदित सँग दसरथनंदा।।
चलत सेतु पे लखि रघुनंदन।
करैं बिबिध जलचर जनु बंदन।।
निरखहिं सभ प्रभु अपलक लोचन।
टरहिं न टारे संकट-मोचन ।।
तजि निज बैर निहारहिं रूपा।
ताकहिं हरषित राम-स्वरूपा।
सेतु-बंध पै भीर अपारा।
करैं कपिन्ह बहु नभ-पथ पारा।।
कछु चढ़ि के पीठहिं जलचरहीं।
पार होंहि बहु राम- कृपाहीं।।
पार सिंधु उतरे रघुबीरा।
सेना सहित कृपालु सधीरा।।
डेरा डारि कहे रघुराई।
कपिन्ह जाहु खाहु फल धाई।
आग्या पा धाए कपि-भालू।
अस तब कीन्हे राम कृपालू।
ऋतु बिपरीत फरे तरु-बिटपा।
मधुर-मधुर फर तरु-सिख लिपटा।।
होय मुदित कपि-भालू खावहिं।
तोरि सिखा तरु लंक पठावहिं।
इहँ-तहँ देखि निसाचर जबहीं।
नाच नचावहिं तिन्ह मिलि सबहीं।।
नाकहिं-कान काटि तिन्ह भेजहिं।
करि गुन-गान राम सभ गरजहिं।।
दोहा-बान्हि सिंधु लइ भालु-कपि, राम इहाँ अब आहिं।
नाक-कान बिनु कहत सभ, धावहिं रावन पाहिं।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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