डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण (श्रीरामचरितबखान)-3

छिड़कि गंग-जल पा परमेस्वर।

जाको मिलहिं दरस रामेस्वर।।

     राम-सेतु जे दरसन करहीं।

      बिनु श्रम ते भव-सिंधुहिं तिरहीं।।

निपुन नील-नल सेतु बनावहिं।

डूबत पाथर ऊपर आवहिं।।

   नहिं ई हवै बंधु-चतुराई।

   नहिं ई होय कपिन्ह निपुनाई।।

प्रभु-प्रताप कै महिमा भारी।

बना सेतु अस सिंधु मँझारी ।।

     सुदृढ़ सेतु बिलोकि रघुराई।

     हरषित हों पुनि-पुनि तहँ जाई।

गर्जत-तर्जत मरकट बृंदा।

चलहिं मुदित सँग दसरथनंदा।।

    चलत सेतु पे लखि रघुनंदन।

     करैं बिबिध जलचर जनु बंदन।।

निरखहिं सभ प्रभु अपलक लोचन।

टरहिं न टारे संकट-मोचन ।।

     तजि निज बैर निहारहिं रूपा।

      ताकहिं हरषित राम-स्वरूपा।

सेतु-बंध पै भीर अपारा।

करैं कपिन्ह बहु नभ-पथ पारा।।

     कछु चढ़ि के पीठहिं जलचरहीं।

     पार होंहि बहु राम- कृपाहीं।।

पार सिंधु उतरे रघुबीरा।

सेना सहित कृपालु सधीरा।।

    डेरा डारि कहे रघुराई।

     कपिन्ह जाहु खाहु फल धाई।

आग्या पा धाए कपि-भालू।

अस तब कीन्हे राम कृपालू।

     ऋतु बिपरीत फरे तरु-बिटपा।

      मधुर-मधुर फर तरु-सिख लिपटा।।

होय मुदित कपि-भालू खावहिं।

तोरि सिखा तरु लंक पठावहिं।

      इहँ-तहँ देखि निसाचर जबहीं।

       नाच नचावहिं तिन्ह मिलि सबहीं।।

नाकहिं-कान काटि तिन्ह भेजहिं।

करि गुन-गान राम सभ गरजहिं।।

दोहा-बान्हि सिंधु लइ भालु-कपि, राम इहाँ अब आहिं।

         नाक-कान बिनु कहत सभ, धावहिं रावन पाहिं।।

                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

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