दोहे(दीपक)
दीपक माटी का बना,करे जगत उजियार।
छोटा तन धारे करे,दूर यही अँधियार ।।
तेल और बाती उभय,हैं दीपक के प्राण।
जैसे जीव-शरीर को,प्राण दे रहा त्राण।।
प्रेम-मगन हो शलभ भी,दीप-शिखा को देख।
उड़ कर उसमें जल मरे,ग़ज़ब विधाता-लेख।।
शलभ जलाकर स्वयं को,गले लगाए दीप।
अमर प्रेम-संदेश दे,सबको रंक-महीप।।
नन्हें दीये में निहित,अद्भुत शक्ति अपार।
प्रेम-तत्व जो गूढ़ अति,का यह करे प्रसार।।
जब बाहर तूफ़ान हो,घर में जलता दीप।
शोभनीय लगता बहुत,जैसे मोती सीप।।
इसकी महिमा क्या कहें,रचे प्रेम का खेल।
दीपक-बाती-तेल का,होता अद्भुत मेल।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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