डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 दोहे(दीपक)

दीपक माटी का बना,करे जगत उजियार।

 छोटा तन धारे करे,दूर यही अँधियार ।।


तेल और बाती उभय,हैं दीपक के प्राण।

जैसे जीव-शरीर को,प्राण दे रहा त्राण।।


प्रेम-मगन हो शलभ भी,दीप-शिखा को देख।

उड़ कर उसमें जल मरे,ग़ज़ब विधाता-लेख।।


शलभ जलाकर स्वयं को,गले लगाए दीप।

अमर प्रेम-संदेश दे,सबको रंक-महीप।।


नन्हें दीये में निहित,अद्भुत शक्ति अपार।

प्रेम-तत्व जो गूढ़ अति,का यह करे प्रसार।।


जब बाहर तूफ़ान हो,घर में जलता दीप।

शोभनीय लगता बहुत,जैसे मोती सीप।।


इसकी महिमा क्या कहें,रचे प्रेम का खेल।

दीपक-बाती-तेल का,होता अद्भुत मेल।।

        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

            9919446372

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