षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-10
पुनि उठि प्रात तुरत रघुराई।
सचिवहिं तें निज बाति बताई।।
जामवंत तब कह नत माथा।
सकल उपाय तु जानउ नाथा।।
बुद्धि-प्रताप तुमहिं आगारा।
कर उपाय निज मति अनुसारा।।
भेजब हम अंगद कहँ तहवाँ।
लंका नगर दनुज रह जहवाँ।।
तव बिचार आहै बड़ नीका।
अंगद-गमन अतीव सटीका।।
बल-बुधि-तेजहिं नामी अंगद।
जाहु तुरत तुम्ह रावन-संसद।।
जाइ तहाँ करु हितकर काजा।
बल-बुधि बूते करि कछु छा जा।।
प्रभु-आग्या लइ छूई चरना।
उठि अंगद कह नहिं कछु करना।।
करिहैं स्वयं राम रघुराई।
राम-कृपा मैं आदर पाई।।
बंदि मनहिंमन प्रभु-प्रभुताई।
बालि-तनय निकसा तहँ धाई।।
पहुँचि लंक रावन-सुत पाई।
खेल-खेल मा भई लराई।।
अंगद लातन्ह-घूसन्ह पीटा।
मारि-मारि तेहिं बहुत घसीटा।।
बध नरेस-सुत देखि निसाचर।
भागहिं इत-उत बिकल बराबर।।
कहहिं सुनो पुनि आवा बानर।
गवा रहा जे लंक जराकर ।।
डरि-डरि तब सभ दिए बताई।
जहँ रह रावन-सभा सुहाई।।
सोरठा-सभा मध्य लंकेस, अंगद सुमिरत प्रभु-चरन।
कीन्हा तुरत प्रबेस, केहरि इव चितवत सबहिं।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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