षष्टम चरण (श्रीरामचरितबखान)-5
होहु बिमुक्त राज-सुख-भोगा।
गहहु राम-पद तजि भव-रोगा।।
बड़े भागि रामहिं जग मिलहीं।
अस सुजोग बिरलै मुनि पवहीं।।
मैं जानउँ बल तोर नरेसा।
जीतेउ सुरन्ह-असुर लंकेसा।।
कृपा-निधान राम भगवाना।
प्रिय सरनागत सभ जग जाना।।
जौं चाहेसि तव-मम कल्याना।
भजहु राम धारि हिय ध्याना।।
मैं चाहहुँ जग रहहुँ सुहागन।
मोंहि बनाउ न नाथ अभागन।।
कंपित बपु व अश्रु लोचन भर।
रहूँ सुहागन कहा मँदोदर।।
सुनउ मँदोदर हमहिं पुरोधा।
जीता मोंहि न कोऊ जोधा।।
जम-कुबेर-दिग्पालन्ह जीता।
सुनि मम नाम काल भयभीता।।
पवनहिं-बरुन,देव-दानव-नर।
रखहुँ सबहिं मैं निज भुज-बल पर।।
रहहु अभीत निडर जग माहीं।
इहँ तव हानि होंहि कछु नाहीं।।
अस कहि तुरत सभा महँ गयऊ।
कह मयसुता काल बस भयऊ।।
कीन्ह सलाह सभा महँ जाई।
सचिवन्ह सँग अब कवन उपाई।।
चिंता नाथ करहु अब नाहीं।
बानर-भालू,नर-हम खाहीं।।
अस बिचार प्रहस्त न भावा।
मुहँ-देखी कह नीति न गावा।।
दोहा-ठकुर-सुहैती नहिं भली,होय राज कै हानि।
नीति बिरोधहिं काम अस,कबहुँ न हो कल्यान।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें