डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 गीत(16/14)

जितने दूर हुए तुम तन से,

उतने मन के पास हुए।

प्रेमी के भूगोल न होते,

प्रेमी तो इतिहास हुए।।


जब मन कहता तुमको पाता,

तुम मेरे हृद-वासी हो।

अंतर्मन की शोभा तुम हो,

तुम प्रेमी अविनासी हो।

तुमको अंतर्मन में पाकर-

कभी न भाव उदास हुए।।

 प्रेमी तो इतिहास हुए।।


मेरा प्रेम निराला-अद्भुत,

कभी नहीं जग को दिखता।

प्रेम सदा अध्यात्म रूप है,

कभी न सोने से तुलता।

तुम दैवी अदृश्य भाव हो-

तुम तो बस एहसास हुए।।

   प्रेमी तो इतिहास हुए।।


सागर की लहरों में तुम हो,

तुम रवि-शशि की किरणों में।

सकल ज्ञान की ज्योति तुम्हीं हो,

भाषा-अक्षर-वर्णों में।

दूर दृष्टि से होकर फिर भी-

सदा मुझे आभास हुए।।

     प्रेमी तो इतिहास हुए।।


गंध पुष्प की जब भी पाऊँ,

तुम्हीं महकते मुझे मिले।

भौरों की गुंजन में तुम ही,

मुझको विधवत मिले ढले।

कैसे तुम्हें बताऊँ प्रियवर-

तुम मेरे विश्वास हुए।।

    प्रेमी तो इतिहास हुए।।

         ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र

             9919446372

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