"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-16
मत बतकुच्चन करउ तु रावन।
अमल करउ बस मोर सिखावन।।
छाँड़ि कलह अब करउ मिताई।
यहि मा बस अह तोर भलाई।।
मारि सियार सिंह नहिं सोहै।
गज चढ़ि उल्लू साह न मोहै।।
जौं मैं नहिं मनतेउँ प्रभु-कथनी।
पीसि क तोर बनौतेउँ चटनी।।
मुँह तोहार कूँचि क बुढ़ऊ।
तोर भवन उजारि जहँ रहऊ।।
मातु जानकी लइ निज संगा।
जुवतिन्ह सकल लेइ करि दंगा।।
जातउँ मैं इहँ तें बरजोरी।
बिनु कछु सुने गुहार-चिरौरी।।
प्रभु मानव तुम्ह दानव जाती।
यहिं तें सहहुँ तोर बड़ बाती।।
जौं अस करउँ त प्रभु-अपमाना।
जानै तू न मान-सम्माना ।।
मारि मृतक अपजस बस मिलई।
तुम्ह सम बूढ़-मूढ़ कर बधई।।
रोगी-कामी-संत-बिरोधी।
कृपन-अघी-निंदक अरु क्रोधी।।
तिनहिं बधे मम बड़ अपमाना।
यहिं तें मैं प्रभु-कहना माना।।
कह रावन सुनु रे कपि मूढ़ा।
कहेसि मोंहि तू बहुतै बूढ़ा।।
छोट मूहँ बड़ करेसि बतकही।
जाके बल तू उछरत अबही।।
त्रिया-बिरह दिन-राति डराहीं।
पितु बनबास पाइ बन आहीं।।
बस नर ऊ बल-तेज बिहीना।
जासु प्रताप बिरंचिहिं छीना।।
सोरठा-तू बानर न सचेत,जानसि नहिं तुम्ह निसिचरहिं।
तव प्रभु राम समेत,खिइहैं सभ मिलि हो मगन।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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