*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-24
करन लगे मर्दन कपि दोऊ।
रिपुहिं पछारि-मारि तहँ उभऊ।।
लातन्ह-घूसन्ह धूसहिं सबहीं।
झापड़ मारि क थूरहिं तहँहीं।।
तोरि मुंड कहु-कहु कै दोऊ।
रावन आगे फेंकहिं सोऊ।।
फुटहिं मुंड दधि-कुंड की नाई।
लंक-भूमि जिमि दधिहिं नहाई।।
फेंकहिं पैर पकरि मुखियन कहँ।
गिरहिं ते जाइ राम-चरनन्ह पहँ।।
जानि बिभीषन तें सभ नामा।
भेजहिं राम तिनहिं निज धामा।।
बड़ भागी ते आमिष-भोगी।
लहहिं राम जे पावहिं जोगी।।
अधिक उदार राम करुनाकर।
ममता-समता,नेह-गुनाकर।।
प्रबिसे तब अंगद-हनुमंता।
लंक पुरी अस कह भगवंता।।
मरदहिं लंक जुगल कपि ऎसे।
सिंधु मथहिं दोउ मंदर जैसे।।
यावत दिवस लरे तहँ दोऊ।
आए तुरत साँझ जब होऊ।।
तुरतै आइ छूइ प्रभु-चरना।
पाए प्रचुर कृपा नहिं बरना।।
भए बिगत श्रम लखि प्रभु रामा।
सुमिरत कष्ट कटै जेहि नामा।।
साँझ परे निसिचर-बल जागा।
किए चढ़ाई ते वहिं लागा।
लखि निसिचर आवत कपि बीरा।
कटकटाइ दौरे रनधीरा ।।
भिरे दोउ दल बड़ गंभीरा।
मानहिं हार न कोऊ बीरा।।
निसिचर सभें होंहि मायाबी।
आमिष-भोगी जबर सराबी।।
माया-बल तहँ करि अँधियारा।
करन लगे बहु बृष्टि अपारा।।
पाथर-रुधिर-राख तहँ बरसहिं।
देखि निबिड़ तम कपि सभ भरमहिं।।
जाने मरम जबहिं प्रभु रामा।
भेजे हनु-अंगद तेहि धामा।।
कपि-कुंजर तब गे तहँ धाई।
पावक-सर रघुनाथ चलाई।।
भे उजियार सहज तब तहवाँ।
रह अग्यान-भरम-तम जहवाँ।।
तिल कै ताड़ तुरत प्रभु करहीं।
तिलहिं समान ताड़ अपि भवहीं।।
पा प्रकास भे कपि-दल हरषित।
निसिचर सभें भए बहु लज्जित।।
सुनि हुँकारि अंगद-हनुमाना।
भागि गए रजनीचर नाना।।
पकरि-पकरि तब कपिदल निसिचर।
डारहिं सागर,हरषित जलचर ।।
दोहा-खाहिं तिनहिं मछरी-उरग,खा-खा मगर अघाहिं।
टँगरी पकरि क निसिचरन्ह,फेंकहिं कपि जल माहिं।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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