डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-24

करन लगे मर्दन कपि दोऊ।

रिपुहिं पछारि-मारि तहँ उभऊ।।

    लातन्ह-घूसन्ह धूसहिं सबहीं।

    झापड़ मारि क थूरहिं तहँहीं।।

तोरि मुंड कहु-कहु कै दोऊ।

रावन आगे फेंकहिं सोऊ।।

     फुटहिं मुंड दधि-कुंड की नाई।

     लंक-भूमि जिमि दधिहिं नहाई।।

फेंकहिं पैर पकरि मुखियन कहँ।

गिरहिं ते जाइ राम-चरनन्ह पहँ।।

    जानि बिभीषन तें सभ नामा।

    भेजहिं राम तिनहिं निज धामा।।

बड़ भागी ते आमिष-भोगी।

लहहिं राम जे पावहिं जोगी।।

    अधिक उदार राम करुनाकर।

     ममता-समता,नेह-गुनाकर।।

प्रबिसे तब अंगद-हनुमंता।

लंक पुरी अस कह भगवंता।।

     मरदहिं लंक जुगल कपि ऎसे।

     सिंधु मथहिं दोउ मंदर जैसे।।

यावत दिवस लरे तहँ दोऊ।

आए तुरत साँझ जब होऊ।।

     तुरतै आइ छूइ प्रभु-चरना।

     पाए प्रचुर कृपा नहिं बरना।।

भए बिगत श्रम लखि प्रभु रामा।

सुमिरत कष्ट कटै जेहि नामा।।

     साँझ परे निसिचर-बल जागा।

     किए चढ़ाई ते वहिं लागा।

लखि निसिचर आवत कपि बीरा।

कटकटाइ दौरे रनधीरा ।।

    भिरे दोउ दल बड़ गंभीरा।

     मानहिं हार न कोऊ बीरा।।

निसिचर सभें होंहि मायाबी।

आमिष-भोगी जबर सराबी।।

    माया-बल तहँ करि अँधियारा।

    करन लगे बहु बृष्टि अपारा।।

पाथर-रुधिर-राख तहँ बरसहिं।

देखि निबिड़ तम कपि सभ भरमहिं।।

    जाने मरम जबहिं प्रभु रामा।

     भेजे हनु-अंगद तेहि धामा।।

कपि-कुंजर तब गे तहँ धाई।

पावक-सर रघुनाथ चलाई।।

     भे उजियार सहज तब तहवाँ।

     रह अग्यान-भरम-तम जहवाँ।।

तिल कै ताड़ तुरत प्रभु करहीं।

तिलहिं समान ताड़ अपि भवहीं।।

     पा प्रकास भे कपि-दल हरषित।

     निसिचर सभें भए बहु लज्जित।।

सुनि हुँकारि अंगद-हनुमाना।

भागि गए रजनीचर नाना।।

      पकरि-पकरि तब कपिदल निसिचर।

      डारहिं सागर,हरषित जलचर ।।

दोहा-खाहिं तिनहिं मछरी-उरग,खा-खा मगर अघाहिं।

         टँगरी पकरि क निसिचरन्ह,फेंकहिं कपि जल माहिं।।

                    डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

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