डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-7

बानर-रीछ-सेन सँग रामा।

रहहिं सुबेलहिं रुचिकर धामा।।

    लखन बिछाइ मृदुल मृगछाला।

    आसन देवहिं राम-कृपाला।।

निज सिर रखि सुग्रीव-गोद महँ।

राम सुधारहिं धनु-सर वहिं पहँ।।

    कहहिं बिभीषन अस लखि तहवाँ।

     बड़ भागी अंगद -हनु इहवाँ ।।

चापहिं प्रभु-पद-पंकज प्रेमा।

बान सरासन लखन सनेमा।।

     जे नित दरस करै अस रूपा।

     प्रभु-प्रसाद उ पाव अनूपा।।

लखि पूरब दिसि तब प्रभु कहऊ।

उदित चंद्र केहरि सम लगऊ। 

     चंद्र गगन तम निसा बिदारै।

     जस बन सिंह मत्त गज मारै।।

निसा-सुनारि-मुकुतहल तारे।

निसि-बाला जनु रहे सवाँरे।।

     सबहिं बताउ मोंहि अब ऐसे।

      चंद्र मध्य स्याम रँग कैसे।।

तब सुग्रीव राम तें कहई।

छाया भूमि मध्य ससि रहई।।

   स्याम चंद्र राहू कर दीन्ही।

    काटि ताहि बिधि रति-मुख किन्ही।।

बहु-बहु मुख अरु बहु-बहु बाता।

कछुक नहीं प्रभु कर मन भाता।।

    कह प्रभु गरल चंद्र बहु भावै।

    यहिं तें बिष उर चंद्र लगावै।।

निज बिष-किरन पसारि क चंदा।

बिरही बदन जरावै बंदा ।।

     कह हनुमत प्रभु ससि उर तुमहीं।

      कीन्ह स्यामता बसि के उरहीं।।

दोहा-सुनि हनुमंतहिं बचन अस,बिहँसे प्रभु श्रीराम।

         लखि के दिसि दक्खिन तुरत,बोले प्रभु अभिराम।।

                              डॉ0हरि नाथ मिश्र

                                9919446372

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